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काव्य मे अभिव्यय्जनावाद १६१


उपयोगी-अनुपयोगी,लाभकारी हानिकारी दो पक्ष अवश्य ही होंगे। यदि केला में सुग्वात्मक भावे ( जैसे, रति, होस ) का मूल्य होता है तो इसका मतलब यह है कि दुःखात्मक भाव ( जैसे, शोक, जुगुप्सा ) का कोई मुल्य नहीं। पर काव्य में दोनों प्रकार के भाव बरावर देखे जाते हैं । कला या काव्य का मूल्य तो 'सुन्दर' शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसे, योगक्षेम-सम्बन्धी (Economic) मूल्य 'उपयोगी' या 'कल्याणकारी' या ‘शुभ' ( शिवम् ) शब्द द्वारा, बुद्धिसम्बन्धी मूल्य 'सत्य' शब्द द्वारा, धर्म-सम्बन्धी मूल्य ‘उचित' शब्द द्वारा । पर कला के क्षेत्र में 'सुन्दर' शब्द को भी क्रोचे एक विशेष अर्थ में स्वीकार करता है। सौन्दर्य से उसका तात्पर्य केवल अभिव्यञ्जना के सौन्दर्य से, उक्ति के सौन्दर्य से, है किसी प्रस्तुत वस्तु के सौन्दर्य से नहीं । किसी चास्तविक या प्रस्तुत वस्तु में सौन्दर्य कहाँ ? क्रोचे तो कल्पना की सहायता के विना प्रकृति में कहीं कोई सौन्दर्य नहीं मानते । जो कुछ सौन्दर्य होता है वह केवल अभिव्यञ्जना में, उक्ति-स्वरूप में । यदि सुन्दर कही जा सकती है तो उक्ति ही, असुन्दर कही जा सकती है तो उक्ति ही । इस मौके पर अपने पुराने कवि केशवदासजी याद आ गए, जो कह गए हैं कि-"देखै मुख भावे, अनदेखेई कमल चन्द, तातें मुख मुखे सखी, कमलौ न चन्द री ।” केशवदास जी को भी कमल, चन्द्र इत्यादि देखने में कुछ भी अच्छे या सुन्दर नहीं लगते थे । हाँ, जब वे उपमा-उत्प्रेक्षा पूर्ण किसी काव्योक्ति में समन्वित होकर आते थे तब वे सुन्दर दिखाई पड़ने लगते थे ।

फिर लोग क्यों नाहक ‘प्रकृति की सुषमा, शोभा, छटा, सुन्दरता' इत्यादि कहा करते हैं ? क्रोचे कहता है कि बात यह है कि काव्य की उक्तियों के निर्माण में प्रकृति के क्षेत्र से बहुत-सी सामग्री न जाने कितने दिनों से लोग लेते चले आ रहे हैं। इससे उन वस्तुओं को असख्य उक्तियों में सुन्दर देखते देखते उनके सम्बन्ध में सुन्दरता की भावना बँध गई है और हम उन्हें वास्तविक या प्रत्यक्ष रूप में भी सुन्दर समझा करते हैं ।
क्रोचे प्रारम्भ में ही कला सम्वन्धी उद्भावना को ज्ञाने-स्वरूप ( भावानुभूति-स्वरूप या आस्वाद स्वरूप नहीं ) मानकर चला है, यद्यपि आगे चलकर उसने माना है कि इस ज्ञान के साथ एक विशेष प्रकार का आनन्द भी बरावर लगा रहता है। उसके मत में यह आनन्द प्रौर सर्व प्रकार के आनन्दो से