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चिन्तामणि

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१८२ चिन्तामणि योरप में तो वन्द हुआ, पर यहाँ उसकी गूंज अब तक सुनाई दिया करती है । और सब बातें अभी छोड़कर यहाँ हम प्रसंग-वश ‘बुद्धि अौर ‘अर्थ’ वाली बात लेते है ।। ऊपर शब्द-शक्तियों के सम्बन्ध मे हम जो कुछ कह आए है। उससे इस बात का आभास मिलना है कि भारतीय दृष्टि के अनुसार ‘अर्थ’ काव्य में क्या काम करता है और बुद्धि का काव्य मे क्या स्थान है । ‘अर्थ’ से अभिप्राय योग्य और उपपन्न अर्थ से है, यह दिखाया जा चुका है। वाच्यार्थ के अयोग्य या अनुपपन्न होने पर योग्य और उपपन्न अर्थ प्राप्त करने के लिए लक्षण और व्यञ्जना को सहारा लिया जाता है। अब प्रश्न यह है कि काव्य की रमणीयता किसमे रहती है ? वाच्यार्थ में अथवा लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ मे ? इसका वेधडक उत्तर यही है कि वाच्यार्थ मे, चाहे वह योग्य और उपपन्न हो, अथवा अयोग्य और अनुपपन्न । मेरा यह कथन विरोधाभास का चमत्कार दिखाने के लिए नहीं है, सोलह आने ठीक है। कोई रसात्मक या चमत्कार-विधायक उक्ति लीजिए ! उस उक्ति ही में, . अर्थात् उसके वाच्यार्थ ही मे, काव्यत्व या रमणीयता होगी, उसके लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ मे नही । जैसे, यह लक्षणयुक्त वाक्य लीजिए--- जीकर, हाय ! पतंग भरे क्या ? इसमें भी यही बात है। जो कुछ वैचित्र्य या चमत्कार है वह इस अयोग्य और अनुपपन्न वाक्य या उसके वाच्यार्थ में ही है । इसके स्थान पर यदि इसकी यह लक्ष्यार्थ कहा जाय कि “जीकर पतंग क्यो कष्ट भोगे ? तो कोई वैचित्र्य या चमत्कार न रहेगः । अब ‘साकेत' में उर्मिला की यह रसात्मक उक्ति लीजिए आप अवधि वन सकें कहीं तो क्या कुछ देर लगाऊँ ? मैं अपने को आप मिटाकर, जाकर उनको लाऊँ।