पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१८४

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काव्य में अभिव्यञ्जवाद १७७ उसे दबानेवाले भाव-विधान या उक्ति-वैचित्र्य के लिए और थोड़ा स्थान वचता है। उपन्यास में सन बहुत कुछ घटनाचक्र में लगा रहता है। पाठक का मर्मस्पर्श बहुत कुछ घटनाएँ ही करती हैं ; पात्रों द्वारा भावों की लंबी चौड़ी व्यञ्जना की अपेक्षा उतनी नहीं रहती ।। काव्यात्मक गद्यप्रवन्ध या लेख छन्द के बन्धन से मुक्के काव्य ही हैं, अतः रचना-भेद से उनमें भी अर्थ को उन्हीं रूपों में ग्रहण होता है जिन रूपो में छन्दोबद्ध काव्य में होता है अर्थात् कहीं तो वह अपने प्रकृत और सीधे रूप में विद्यमान रहती है और कहीं भाव या चमत्कार द्वारा संक्रमित रहता है ।। उपर्युक्त चारों प्रकार की रचनाओं में कल्पना-प्रसूत ‘वस्तु' या अर्थ की प्रधानता रहती है, शेष तीन प्रकार के अर्थ सहायक के रूप में रहते हैं। पर निबन्ध में विचार-प्रसूत अर्थ अङ्गी होता है और आप्तोपलव्ध या कल्पित अर्थ अङ्ग रूप में रहता है। दूसरी बात यह है कि प्रकृत निबन्ध अर्थप्रधान होता है। व्यक्तिगत वाग्वैचित्र्य अर्थोंपहित होता है, अर्थ के साथ मिला-जुला होता है और हृदय के भाव या प्रवृत्तियाँ बीच-बीच में अर्थ के साथ झलक मारती हैं । | साहित्य के अन्तर्गत आनेवाली पॉच प्रकार की रचनाओं का आभास देकर अब मैं सबसे पहले काव्य को लेता हूँ जिसकी परम्परा सभ्य, असभ्य सब जातियो मे अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आती है। लोक में जैसे और सच विषयों का प्रकाश मनुष्य की वाणी या भापा द्वारा होता है वैसे ही काव्य को प्रकाश भी । भाषा का पहला काम है शब्दो के द्वारा अर्थ का बोध कराना । यह काम वह सर्वत्र करती है इतिहास में, दर्शन में, विज्ञान में, नित्य की बातचीत में, लड़ाई-झगड़े में और काव्य में भी । भावोन्मेप, चमत्कारपूर्ण अनुरंजन इत्यादि-और जो कुछ वह करती है उसमें अर्थ का योग अवश्य रहता है। अर्थ जहाँ होगी वहाँ उसकी । योग्यता और प्रसंगानुकूलता १२