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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद १७५ कथात्मक गद्यकाव्य । इनमें से पहले दो तो अब तक ज्यो के त्यों बने हैं । कथात्मक गद्यकाव्य का स्थान अब उपन्यासो और छोटी कहानियों ने लिया है। चौथा रूप है काव्यात्मक गद्यप्रबन्ध या लेख । पाँचवा है वह विचारात्मक निवन्ध या लेख जिसमें भावव्यञ्जना और भाषा का वैचित्र्य या चमत्कार भी हो अथवा जिसमें पूर्वोक्त चारो प्रकार की कृतियों की मार्मिक समीक्षा या व्याख्या हो । काव्यसमीक्षा के अतिरिक्त और प्रकार के विचारात्मक निबन्ध साहित्य-कोटि में वे ही आते हैं जिनमे बुद्धि के अनुसन्धान-क्रम या विचार-परम्परा द्वारा गृहीत अर्थों या तथ्यों के साथ लेखक का व्यक्तिगत वाग्वैचित्र्य तथा उसके हृदय के भाव या प्रवृत्तियां पूरी पूरी झलकती हैं। इस प्रकार मेरे विचार के विषय ठहरते है--काव्य, नाटक, उपन्यास, गद्यकाव्य और निबन्ध, जिसमें साहित्यालोचन भी सम्मिलित है। ( इन्हीं के सम्बन्ध में मैं अपनी कुछ भली या वरी धारणाएँ क्रम से आप लोगों के सम्मुख प्रकट करूँगा, इस अाशा से कि उनका बहुत कुछ संशोधन और परिष्कार इस विद्वन्मण्डली के बीच हो जायगा | पहले मैं प्रत्येक का स्वरूप समझने का प्रयास करूंगा, फिर अपने साहित्य में उसके विकास पर कुछ निवेदन करूंगा--‘प्रकाश डालना' तो मुझे अाता नहीं । ) उपर्युक्त पॉचो प्रकार की रचनाओं में भाव या चमत्कार के परिमाण में ही नहीं, उसकी शासन-विधि में भी भेद होता है। कहीं तो वह शासन इतना सर्वग्रासी और कठोर होता है कि भाव या चमत्कार के इशारे पर ही भाषा अनेक प्रकार के रूप-रद्ध बनाकर नाचती दिखाई पड़ती है , अपना खास कामे लुक-छिप कर करती है। कहीं इतना कोमल होता है कि वह अपना पहला काम खुलकर करती हुई भाव का कार्यसाधन करती है और अच्छी तरह करती है। भाषा का असल काम यह है कि वह प्रयुक्त शब्दो के अर्थयोग द्वारा ही---या तात्पर्यवृत्ति द्वारा ही--पूर्वोक्त चार प्रकार के अर्थों में से किसी