पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७८

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काव्य मे रहस्यवाद् १७१ भद्दी नकल देख सर जार्ज ग्रियर्सन ने अपनी भाषाओ की जॉच' में स्पष्ट विरक्ति प्रकट की है । एक जगह की प्रचलित और सामान्य वस्तुओं को दूसरी जगह विकृत रूप में रखकर नवीनता की विज्ञप्ति करना किसी सभ्य जाति को शोभा नहीं देता। यह नवीनता नही हैअपने स्वरूप का घोर अज्ञान है, अपनी शक्ति का घोर अविश्वास है, अपनी बुद्धि और उद्भावना का घोर आलस्य है, पराक्रान्त हृदय का घोर नैराश्य है, कहाँ तक कहे ? घोर साहित्यिक गुलामी है। जब तक इस गुलामी से छुटकारा न होगा तब तक नवीनता के दर्शन कहाँ ? नकल के भीतर की नवीनता भी नकल ही के पेट मे समा जाती है । दुनिया जानती है कि जब से फारसी और संस्कृत के काव्यों के अनुवाद योरप के भिन्न-भिन्न देशों में होने लगे तभी से पूरबी रङ्ग (Orientalisin ) की बहुत कुछ झलक बह की कविताओं मे दिखाई पड़ने लगी । पर इस बाहरी रङ्ग को उन्होंने अपने रङ्ग में ऐसा मिला लिया कि इसकी पृथक् सत्ती कहीं से लक्षित नहीं होती । उनके अपने विचारो का ऐसा स्वतन्त्र और सघन प्रसार था कि बाहर से आते हुए विचार उसी मे समाते गए । उनकी अपनी विचारधारा इतनी सबल थी कि बाहर से आकर मिले हुए सोते अपनी उछल-कूद अलग न दिखाकर, उसी के वेग को बढ़ाते रहे । इसका नाम है। स्वतन्त्र ‘प्रगति' और स्वतन्त्र 'विकास' ।। अन्त में हम इतना और कहकर अलग होते हैं कि हम सारी काव्यक्षेत्र देव, मतिराम और बिहारी आदि के घेरे के भीतर देखनेवाले पुरानी लकीर के फकीर न कभी रहे है और न हैं । हम अपने हिन्दीकाव्य को विश्व की नित्य और अनन्त विभूति में स्वच्छन्दतापूर्वक, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार, अपनी आँख खोलकर, विचरण करते देखना चाहते हैं । पर यह दिन तभी आ सकता है जब हमारी अन्तर्दृष्टि को आच्छन्न करनेवाले परदे हटेंगे और हमारे विचारो मे बल आएगा ।