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चिन्तामणि

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१७० चिन्तामणि क्षमता और प्रणाली भी स्वतन्त्र है । उसकी आत्मा को, उसकी छिपी हुई भीतरी प्रकृति को, पहले जब हम सृक्षमता से पहचान लेगे तभी दूसरे देशो के साहित्य के स्वतन्त्र पयलोवन द्वारा अपने साहित्य के उत्तरोत्तर विकास का विधान कर सकेगे । हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा; दूसरे देशो की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं । जब तक हम इस विचार-सामथ्र्य का संपदन न कर लेगे तब तक अफ्रिका के जंगलियों की तरह जो अँगरेजों के उतारे कपड़े वदन पर डालकर स्त्रवर्गियों के बीच बड़ी ऐठ से चला करते हैं-भद्दी नकल को ही नवीनता मानकर सन्तोष करते रहेगे और सभ्य-जगत् के उपहास-भाजन बने रहेगे। हमारी ऑख अपना स्वरूप तक न देख सकेगी, विदेशी दर्पण की अवश्यकता होगी । विदेशी लोग जैसा हमें बतायेगे वैसा ही अपने को मानकर हम उसके प्रमाण उनके सामने रखा करेगे । योरप ने कहा “भारतवासी बड़े आध्यात्मिक होते है ; उन्हें भौतिक सुख-समृद्धि की परवा नही होती। बस, दिखा चले अपनी आध्यात्मिकता। देखिए, हमारे कार्य में भी आध्यात्मिकता है । यह देखिए हमारी चित्रविद्या की आध्यात्मिकता, यह देखिए हमारी मूर्तिकला की आध्यात्मिकता ।। जितनी बातें आजकल काव्यक्षेत्र में नवीनता' कहकर पेश की जाती है, एक-एक करके सबका मूल हम योरप के नए-पुराने प्रचलित प्रवादो में दिखा चुके है। सव नकल की नकल है । इस नकल की प्रवृत्ति बंगाल में ही सबसे अधिक रही। वही के साहित्य में एक-एक बात की नकल शुरू हुई । नकल से किसी जाति के साहित्य का असली गौरव नही हो सकता । इससे उसकी अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपनी उद्भावना का अभाव ही व्यञ्जित होता है। जिसकी नकल की जाती है वह और भी उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। बंग-भाषा के साहित्य मे योरपीय साहित्य की प्रवृत्तियों की यह