पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१७२

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काव्य मे रहस्यवाद १६५. my atmosphere), ‘स्वप्निल आभा' (Drea1nny splendour) आदि के रूप में मझलक रहा है। अतः हिन्दी-काव्यक्षेत्र में यदि 'रहस्यवाद' के लिए कुछ अधिक स्थान करना है तो स्वाभाविक रहस्य-भावना का-उसके वादग्रस्त या साम्प्रदायिक रूप का नहीं--अवलम्बन करना चाहिए और उसकी व्यञ्जना के लिए अपनी भाषा की--विदेशी भाषा की नहीं सब शक्तियों लगानी चाहिए। भद्दे अनुकरण के अभ्यास का अनिष्ट प्रभाव कई तरफ पड़ता है। यहाँ पर हमसे बिना यह कहे आगे नहीं बढ़ा जाता है कि 'छायावाद' की कविताओं की अपेक्षा हमें तो रहस्यभावना पूर्ण जो दो-एक गद्यकाव्य निकले हैं वे अधिक भावुकतापूर्ण और रमणीय जान पड़ते हैं, विशेषतः राय कृष्णदासजी की 'साधना' । इसमे न तो साम्प्रदायिक रहस्यवाद’ के शाबर मंत्र हैं, न अभिव्यञ्जनाबाद' का अभिनय और न शब्दों की विलायती कलाबाजी । इसका हृदय भी भारतीय है, वाणी भी भारतीय है और दृष्टि भी भारतीय है। जिन अनुभूतियों की व्यञ्जना है वे कहीं भीतर से आती हुई जान पड़ती है; असमान से उतारी जाती हुई नहीं । पदविन्यास में जो सरलता और प्राञ्जलता है वह भी हमारी है। जिन मधुर “प्रतीकों का व्यवहार हुआ है वे भी हमारे हृदय के सगे हैं । अव तो कदाचित् इस बात के विशेष विवरण की आवश्यकता न होगी कि जो ‘छायावाद' नाम प्रचलित है वह वेदान्त के पुराने प्रतिबिम्बवाद' का है। यह प्रतिविम्बवाद' सुफियो के यहाँ से होता हुआ योरप में गया जहाँ कुछ दिनो पीछे ‘प्रतीकवाद' से संश्लिष्ट होकर धीरे-धीरे वंगसाहित्य के एक कोने में आ निकला और नवीनता की धारणा उत्पन्न करने के लिए ‘छायावाद' कहा जाने लगा। यह काव्यगत ‘रहस्यवाद' के लिए गृहीत दार्शनिक सिद्धान्त का द्योतक शब्द है । इसके इतिहास की ओर ध्यान न देने के कारण अनेक