पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१४८

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काव्य मे रहस्यवाद १४१ वह असत् है । क्षणिक विज्ञानवादी ह्यूम (Hume) का यह सिद्धान्त बहुत पक्का है कि इन्द्रियज ज्ञान ( Impressions ) ही सब प्रकार के ज्ञान के मूल है, वे ही विचार विचार होते है जो इनके आधार पर संघटित होते है। भाव के क्षेत्र से भी व्यक्ति प्रसार की अनुभूति ही मूल है। यदि ‘कल्पना' शब्द् बहुत प्रिय हो तो यों कह सकते हैं। कि यह नित्य और अनन्त गत्यात्मक दृश्य जगत् ही ब्रह्म की कल्पना है। मनुष्य की कल्पना तो इसी की एक विकृत और परिमित छाया है। अनन्त का जितना अंश पृथ्वी से लेकर आकाश तक विना दूरबीन के दृष्टि दौड़ाने में ही हमारे सामने आ जाता है उसका शतांश भी एक बार में कल्पना के भीतर नहीं आ सकता ! केवल 'असीम' और 'अनन्त' शब्द रखने या रटने से यह कभी नहीं कहा जा सकता कि असीम या अनन्त कल्पना के भीतर आया हुआ है, उसकी सचमुच अनुभूति हो रही है ।। यह ठीक है कि किसी के सामने न रहने पर उसके प्रति जो प्रेमानुभूति होती है उसमें आलम्वन के स्थान पर उसकी कल्पनात्मक मूर्ति ही रहती है ; पर उस मूर्ति या रूप का ग्रहण चित्रवत् ही होता है । उसके प्रत्यक्ष अर्थात् अधिक गोचर रूप में दर्शन, स्पर्श आदि की वासना बनी रहती है जिसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी अभिलाष के रूप में होती है। राम या कृष्ण का ध्यान करनेवाले भक्त को भी ध्यान में आई हुई काल्पनिक मूर्ति का आना ही साक्षात्कार नहीं समझ पड़ता है यदि ऐसा होता तो ध्यानपूर्वक अभिलाष का कुछ अर्थ ही न होता । सारांश यह कि भारतीय भक्ति-काव्य अनुभूति की स्वाभाविक और वास्तविक पद्धति को लेकर ही चला है ; उसमें किसी 'वाद' के द्वारा विपर्यय करके नहीं । वह अभिव्यक्ति या प्रकाश की ओर उन्मुख है ; रहस्य, या छिपाव की ओर नहीं है ।