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चिन्तामणि

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१३८ चिन्तामणि रहस्य के रूप में ही कुछ लोगों ने किया, यह ठीक है । पर 'रहस्य' की समाप्ति वहीं पर हो गई । अवतारवाद मृले में तो रहस्यवाद के रूप में रहा, पर आगे चलकर वह पूर्ण प्रकाशवाद के रूप में पल्लवित हुआ । रहस्य का उद्धाटन हुआ और राम-कृष्ण के निर्दिष्ट रूप और लोक-विभूति का विकास हु । उमी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति या कला को लेकर हमारा भक्ति-काव्य अग्रसर हुआ ; छिपे रहस्य को लेकर नहीं ।। श्रीकृष्ण ने नर या नरोत्तम के रूप में आकर कहा कि “सच भूतो के भीतर रहनेवाली प्रात्मा मै हुँ' । अर्जुन को इस रहस्य पर विस्मय हुआ । पर एक ओर का वह रहस्य और दूसरी ओर का वह विस्मय, भक्ति या काव्यमयी उपासना के आधार नहीं हुए। उसके लिए भगवान को फिर कहना पड़ा कि "मैं पर्वतो में मेरु हैं, ऋतुओं में वसन्त हूँ और यादवों में वासुदेव हूँ' । इस प्रकार जब प्रकृति की विशाल वेदी पर---अव्यक्त रूप में उसके भीतर ( liminarnent ) या चाहर ( Transcendent )नही---भगवान के व्यक्त और गोचर रूप की प्रतिष्ठा हो गई तत्र काव्यमयी उपासना या भक्ति की धारा फूटी जिसने मनुष्यो के सम्पूर्ण जीवन की—उसके किसी एक खण्ड या कोने को ही नहीं—समय कर दिया ।। । श्रीकृष्ण के पूर्वोक्त दोनों कथनो के भेद पर सूक्ष्म विचार करने पर भारतीय भक्तिकाव्य का स्वरूप खुल जायगा । पहले कथन में दो वाते है--सब भूतों के भीतर मै हुँ और 'अव्यक्त रूप में हूँ” । ये दोनों बाते मनुष्य-हृदय के संचरण-क्षेत्र से दूर की थी । जिज्ञासा पृर्ण नर ने पूछा, “जिसके भीतर आप है, जो नाना रूपो मे हमे | | ग्रहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः --शीता, १०२० }। * | मेरुः शिखरिणामहम् । ऋतूनां कुसुमाकरः । वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि । -गीता, १० ]