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चिन्तामणि

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१३४ चिन्तामणि वाह कर दिया करते हैं । इस प्रकार के लोग सत्र दिन रहे और रहेगे । ऐसे ही लोगों के लिए उर्दू के एक पुराने शायर–शायद नासिख--ने कुछ ऊटपटॉग शेर बना रखे थे । जो उनके पास उनके शेर सुनने की इच्छा से जाता था, उसे पहले से ही शेर वे सुनाते थे । यदि सुननेवाला 'वाह-वाह' कहने लगता तो वे जान लेते थे कि वह मूर्ख है और उठकर चले जाते थे । मनुष्य लोकवद्ध प्राणी हैं । उसको अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकवद्ध है । लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है । एक की अनुभूति को दूसरे के हृदय तक पहुँचाना, यही कला का लक्ष्य होता है । इसके लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं । भाव-पक्ष में तो अनुभूति का कवि के अपने व्यक्तिगत सम्वन्धो या योग-क्षेम की वासनाओं से मुक्त था अलग होकर लोकसामान्य भावभूमि पर प्राप्त होना (Iiinpersonality and detachinment ) ; कला या विधान-पक्ष में उस अनुभूति के प्रेषण के लिए उपयुक्त भापा-कौशल । नेपण के लिए कवि में अनुभूति का होना पहली बात है, इसमें सन्देह नहीं ; पर उस अनुभूति को जिस रूप में कवि प्रेषित करता है वह रूप उसे बहुत कुछ इस कारण दिया जाता है कि उसे प्रेषित करना रहता है । यह हम पहले कह चुके हैं कि जिस रूप में कवि के हृदय में अनुभूति होती है ठीक उसी रूप मैं शब्दों द्वारा प्रेपित नहीं की जा सकती ।। इस विलायती प्रतीक-रहस्यवाद' के क्षेत्र में प्रकृति का क्या स्थान है, यह स्पष्ट है । जब कि प्रकृति के नाना रूपो और व्यापारों )

  • An experience has to be formed, no doubt, before it is communicated, but it takes the form it does because 'it may have to be communicated.

-I A. Richards, "Principles of Literary Criticism's