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चिन्तामणि

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चिन्तामणि राम और लक्ष्मण के दो चित्र आपके सामने है। एक में केवल दो मूर्तिया के छतिरिक्त और कुछ नहीं है और दूसरे में पयस्विनी के द्रुम-लताच्छादित तद पर पर्ण-कुटी के सामने दोनों भाई बैठे है । इनमें से दूसरा चित्र परिस्थिति को लिए हुए हैं, इससे उसमें हमारे भावो के लिए अधिक विस्तृत लम्बन है। हमारी परिस्थिति हमारे जीवन का आलम्पन है, अतः उपचार से वह हमारे भावो का भी थालम्बन है। उसी परिस्थिति में-उसी संसार में उन्ही दृश्यों के चीच जिनमें हम रहते हैं, राम-लक्ष्मण को पाकर हम उनके साथ तादात्म्य-सम्बन्ध का अधिक अनुभव करते हैं, जिससे साधारणीकरण' पूरा-पूरा होता है। पर प्राकृतिक वर्णन केवल अङ्ग-रूप से ही हमारे भावो के आजम्वन नहीं है, स्वतन्त्र रूप में भी हैं। जिन प्राकृतिक दृश्यों के बीच हमारे आदिम पूर्वज रहे और अब भी मनुष्यजाति का अधिकांश ( जो नगरों में नहीं आ गया है) अपनी आयु व्यतीत करता है, उनके प्रति प्रेम-भाव पूर्व-साहचर्य के प्रभाव से संस्कार या वासना के रूप में हमारे अन्तःकरण में निहित हैं। उनके दर्शन या काव्य आदि में प्रदर्शन से हमारी भीतरी प्रकृति का जो अनुरञ्जन होता है वह अवीकृत नहीं किया जा सकता। इस अनुरजन को केवल किसी दूसरे भाव का आश्रित या उत्तेजक कहना अपनी जड़ता का ढिंढोरा पीटना है । जो प्राकृतिक दृश्यों को केवल कामोद्दीपन की सामग्री समझते हैं। उनकी रुचि भ्रष्ट हो गई है और संस्कार-सापेक्ष है। मैंने पहाड़ो पर या जङ्गलों में घूमते समय बहुत से ऐसे साधु देखे हैं जो लहराते हुए हरे-भरे जङ्गलो, स्वच्छ शिलाओ पर चॉदी से ढलते हुए झरनों, चौकड़ी भरते हुए हिरनो और जल को झुककर चूमती हुई डालियों पर कलरव कर रहे विहङ्गों को देख मुग्ध हो गए हैं। का मेघ जब अपनी छाया डालकर चित्रकूट के पर्वतों को नीलवर्ण कर देते हैं तब नाचते हुए