पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१२८

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काव्य में रहस्यवाद | १२१ । यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि प्रतीको को व्यवहार हमारे यहाँ के काव्य में बहुत कुछ अलङ्कार-प्रणाली के भीतर ही हुआ है । पर इसका मतलब यह नहीं है कि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के उपमान और प्रतीक एक ही वस्तु है। प्रतीक को आधार सादृश्य या साधर्म्य नहीं, बल्कि भावना जाग्रत् करने की निहित शक्ति है । पर अलङ्कार से उपमान का आधार सादृश्य या साधम्ये ही माना जाता है। अतः सव' उपमान प्रतीक नहीं होते। पर जो प्रतीक भी होते हैं वे काव्य की बहुत अच्छी सिद्धि करते हैं। अलङ्कारो में कभीकभी किसी एक विषय के सादृश्य या साधर्म्य के विचार से ही बहुत से उपमान ऐसे रख दिए जाते हैं जिनमें कुछ भी प्रतीकत्व नहीं होता-- जैसे कटि की उपमा के लिए सिंह या भिड़ की कमर । ऐसे उपमानों से हम सच्चे काव्य की कुछ भी सिद्धि नहीं मानते । किसी वस्तु के मेल में उपमान खड़ा करने का उद्देश्य यही होता है कि उस वस्तु के सौन्दर्य आदि की जो भावना हो उसे और उत्कर्ष प्राप्त हो। अतः सच्ची परखवाले कवि अप्रस्तुत या उपमान के रूप में जो वस्तुएँ लाते हैं उनमे प्रतीकत्व होता है । हंस, चातक, मेघ, सागर, दीपक, पतङ्ग इत्यादि कुछ विशेष वस्तुओ पर अन्योक्तियाँ क्यो इतनी मर्मस्पर्शणी हुई हैं । इसलिए कि उनमें प्रतीकत्व है। उनके नाम मात्र हमारे हृदय में कुछ बँधी हुई भावनाओं का उद्बोधन करते हैं । इसी प्रकार फारसी की शायरी में गुल बुलबुल, शमः परवानः, शराव याला आदि सिद्ध प्रतीक है। - यहाँ तक तो काव्य में प्रतीको के सर्वसम्मत सामान्य व्यवहार का उल्लेख हुआ , पर यह कायदे की बात है कि जब कोई बात ‘वाद' के रूप में किसी सम्प्रदाय विशेष के भीतर ग्रहण की जाती है तब वह बहुत दूर तक घसीटी जाती है इतनी दूर तक कि वह सबके काम की नहीं रह जाती---और उसे कुछ विलक्षणता प्रदान की जाती है ।