पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१२६

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काव्य में रहस्यवाद् ११६ है । बंगभाषा के काव्यक्षेत्र के तो एक कोने ही में इस रहस्यवाद् या छायावाद की तन्त्री बजी ; मराठी, गुजराती को हरएक विलायती ताल-सुर पर नाचने की आदत नहीं ; पर हिन्दी में तो इसकी नकल का तूफान सा आ गया । | यह ‘प्रतीकवाद' सिद्धान्त-रूप में यद्यपि आध्यात्मिक रहस्यवाद के साथ सम्बद्ध होकर उठा है, पर प्रतीक-रूप में वस्तुओं का व्यवहार अच्छी कविता में बराबर होता आया है । * किसी देवता का प्रतीक सामने आने पर जिस प्रकार उसके स्वरूप और उसकी विभूति की भावना चट मन में आ जाती है उसी प्रकार काव्य में आई हुई कुछ वस्तुएँ विशेष मनोविकारो या भावनाओं को जाग्रत् कर देती हैं। जैसे, ‘कमल' माधुर्यपूर्ण कोमल सौन्दर्य की भावना जाग्रत करता है; ‘कुमुदिनी' शुभ्र हास की ; ‘चन्द्र’ मृदुल आभा की ; समुद्र प्राचुर्य, विस्तार और गम्भीरता की ; 'आकाश' सूक्ष्मता और अनन्तता की । इसी प्रकार सर्प' से क्रूरता और कुटिलता का, ‘अग्नि से तेज और क्रोध का, ‘वीणा' से वाणी या विद्या का, चातक' से निःस्वार्थ प्रेम का संकेत मिलता है। प्रतीक दो प्रकार के होते हैं । कुछ तो मनोविकारों या भावो को जगाते है (Emotional Symbols) और कुछ भावनाओ या विचारों को ( Intellectual Symbols )। भावना या कल्पना जगानेवाले प्रतीको के साथ भाव या मनोविकार भी प्रायः लगे रहते हैं। ऊपर जिन प्रतीकों के नाम आए हैं वे सब ऐसे हैं जिनके

  • Symbolism, as seen in the writers of our day, would have no value if it were not seen also, under one guise or another, 111 every great imaginative writer

--Arthur Symons "The Symbolist Movement in Literatures