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चिन्तामणि

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११४ चिन्तामणि जव भाव की उमङ्ग ही कल्पना को प्रेरित करती है तव कवि का मूल गुण भावुकता अर्थात् अनुभूति की तीव्रता है । कल्पना उसकी सहयोगिनी है । पर ऐसी सहयोगिनी है जिसके बिना कवि अपनी अनुभूति को दूसरे तक पहुँचा ही नहीं सकता। अनुभूति को दूसरे तक पहुँचाना ही कवि-कर्म है । अतः हम कह सकते है कि कल्पना और भावुकता कवि के लिए दोनो अनिवार्य हैं । भावुक जब कल्पना-सम्पन्न और भाषा पर अधिकार रखनेवाला होता है तभी कवि होता है। पर यह भी निश्चय समझना चाहिए कि जिस रूप में अनुभूति कवि के हृदय में होती है, उसी रूप मे व्यञ्जना कभी हो नहीं सकती। उसे प्रेपणीय बनाने के लिए दूसरो के हृदय तक पहुँचाने के लि–भापा का सहारा लेना पड़ता है । शब्दो में ढलते ही अनुभूति बहुत विकृत हो जाती है, और की ओर हो जाती है। इसी से बहुत सी दिव्य और सुन्दर अनुभूतियों को कवि यो ही छोड़ देते , उनकी व्यञ्जना का प्रयास ही नहीं करते । अत्यन्त गहरी अनुभूतिवाले बहुत से भावुक तो कभी ऐसा प्रयास नहीं करते । वे जीवन भर एक प्रकार के मूक कवि बने रहते है। बहुत सी कविता अनु"भूति-दशा मे नहीं होती ; स्मृति-दशा में होती है। जो यह कहे कि जो कुछ हमारे भीतर था सब हमारी कविता में आ गया है, उसमे काव्यानुभूति का अभाव समझना चाहिए और उसकी कविता को कवियो की वाणी का अनुकरण मात्र । | जैसे कवि वैसे ही पाठक या श्रोता भी कभी-कभी रसप्रवण होते है। लोग कभी कहते है कि “वीर रस की कोई कविता सुनाइए', कभी कहते है “शृङ्गार रस की कोई कविता सुनाइए, इसका मतलब यही है कि कभी उनमे उत्साह का उन्मेष रहता है, कभी प्रेम का, कभी किसी और भाव का । इस प्रकार रसोन्मुख होने पर वे अपने अन्तस् में ऐसी वस्तु लाना चाहते है जिस पर भाव विशेष टिके ; उस