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काव्य में प्राकृतिक दृश्य

विभाव के अन्तर्गत दो पक्ष होते हैं-

(१) आलम्बन (भाव का विपय)

(२) आश्रय (भाव का अनुभव करनेवाला)

इनमें से प्रथम तो मनुष्य से लेकर कीट, पतङ्ग, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि सृष्टि का कोई भी पदार्थ हो सकता है। किन्तु दूसरा हृदयसम्पन्न मनुष्य ही होता है। प्राचीन कविगण इन दोनों का स्वरूप प्रतिष्ठित करने से- इनका विम्ब-ग्रहण कराने में-कल्पना का पूरा-पूरा उपयोग करते थे । वाल्मीकीय रामायण को मै आर्य-काव्य का आदर्श मानता हूँ। उसमें राम के रूप, गुण, शील, स्वभाव तथा रावण की विरूपता, अनीति, अत्याचार आदि का पूरा चित्रण तो मिलता ही है, साथ ही अयोध्या, चित्रकूट, दण्डकारण्य आदि का चित्र भी पूरे व्योरे के साथ सामने आता है । इन स्थलो के वर्णन में हमें हाट, वाट, वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, जनपद इत्यादि न जाने कितने पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण मिलता है।

साहित्य के आचार्यों की दृष्टि में वन, उपवन, ऋतु आदि श्रृङ्गार के उद्दीपन' मात्र हैं, वे केवल नायक या नायिका को हँसाने या रुलाने के लिए है। जव यही बात है तब फिर इनका संश्लिष्ट चित्रण करके श्रोता को ‘विम्व-ग्रहण' कराने से क्या प्रयोजन ? उनके नाम गिनाकर अर्थ-ग्रहण करा दिया, बस, हो गया । पर सोचने की बात है कि क्या प्राचीन कवियों ने इनका वर्णन इसी रूप में किया है ? क्या विश्व- हृदय वाल्मीकि ने वनो और नदियों आदि का वर्णन इसी उद्देश्य से किया है ? क्या महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भव के आरम्भ में ही हिमालय का जो विशद वर्णन किया है वह केवल श्रृङ्गार के उद्दीपन की दृष्टि से ?कभी नही! ये वर्णन पहले तो प्रसङ्ग-प्राप्त हैं, अर्थात् अलम्वन की परिस्थिति को अड्कित करनेवाले हैं। इनके विना आश्रय और आलम्बन शून्य में खड़े मालूम होते है। इस पर यो गौर कीजिए।