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चिन्तामणि

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३०४ चिन्तामणि रसे सार५चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते ।। तचमत्कार-सारत्वे सर्वत्राप्यतो रसः ।। “जब कि रस में चमत्कार ही सार है, काव्य में सर्वत्र अनूठापन ही अच्छा लगता है, तब सर्वत्र अद्वैतरस ही क्यों ने कहा जाय ? पण्डितजी ने इस बात पर ध्यान न दिया कि रस के भेद प्रस्तुत वस्तु या भाव के विचार से किए गए हैं ; अप्रस्तुत या सावन के विचार से नही । शृङ्गाररस की किसी उक्ति में, उसके शब्दविन्यास आदि में जो विचित्रता होगी वह वर्णन-प्रणाली की विचित्रता होगी, प्रस्तुत वस्तु या भाव की नही । अतरस के लिए स्वतः आलम्वन विचित्र या अश्चिर्यजनक होना चाहिए । शृद्धार का वर्णन कौतुकी कवि लोग कभी-कभी वीररस की सामग्री अलार-रूप में रखकर किया करते हैं। या ऐसे स्थलों पर शृङ्गाररस न मानकर वीररस मानना चाहिए ? उक्ति-बचित्र्य या अनूठेपन पर जोर देनेवाले हमारे यहाँ भी हुए हैं और योरप में भी आजकल वहुत जोर पर है, जो कहते हैं कि कला या काव्य में अभिव्यञ्जना ( Express1011 ) ही सब कुछ है , जिसकी अभिव्यञ्जना की जाती है वह कुछ नहीं । इस मत के प्रधान प्रवर्तक इटली के क्रोचे ( ]}enedetto Croce ) महोदय हैं। अभिव्यञ्जना-वादियों ( Express10111sts ) के अनुसार जिस रूप में अभिव्यञ्जना होती है उससे भिन्न अर्थ आदि का विचार कला मे अनावश्यक है। जैसे, वाल्मीकि-रामायण में की इस उक्ति मे-- न स संकुचितः पन्था येन वाली तो गतः ।। कवि का कथन यह वाक्य है, यह नहीं कि जिस प्रकार बाली मारा गया उसी प्रकार तुम भी सारे जा सकते हो ।” एक और नया उदाहरण लीजिए | यदि हम पर कभी कविता करने की सनक सवार हो और हम कहें कि-- भारत के फुटे भाग्य के टुकड़ो ! जुड़ते क्यों नहीं है।