पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१०६

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काव्य में रहस्यवाद करण सर्वत्र व्यञ्जना की प्रगल्भता और प्रचुरता पर ही अवलम्बित नहीं होता । या तो आलम्बन स्वभावतः ऐसा हो, या उसका चित्रण इस रूप मे हो, अथवा लोक में उसकी ख्याति ऐसी हो कि वह मनुष्यमात्र के किसी भाव को आकर्षित कर सके 'तभी पूर्ण रसानुभूति के उपयुक्त साधारणीकरण होगा। अधिकतर कविता स्वभावतः। अत्यन्त सामान्य आकर्षणवाले विषयों या आलम्बनो को लेकर होती हैं। दाम्पत्य प्रेम या शृङ्गार की कविता की अधिकता का एक यह भी कारण है कि अत्यन्त सामान्य-रूप में उसका आलम्बन--पुरुष के लिए स्त्री, स्त्री के लिए पुरुष---मनुष्य क्या' प्राणिमात्र को आकर्षित करता है। उसकी आलम्बनता स्त्री-जाति और पुरुष-जाति के बीच नैसर्गिक आकर्षण की बड़ी चौड़ी नीचें पर ठहरी है। यहाँ तक कि वर्णन न होने पर भी उसका आक्षेप सहज में हो जाता है। दूसरे भावों के आलम्बनों में कुछ विशिष्टता अपेक्षित होती है, पर साधारणीकरण शीघ्र हो जाता है। क्रोध के आलम्बन का साधारणीकरण सब दशाओं में नहीं होती। यह आवश्यक नहीं है कि सर्वत्र आश्रय के क्रोध को पात्र मनुष्यमात्र के क्रोध का पात्र हो । रौद्ररस में आलम्बन को साधारणीकरण पूरा-पूरी तभी हो सकता है, जब कि वह अपनी क्रूरता, अन्याय, अत्याचार आदि के कारण मनुष्यमात्र के क्रोध का पात्र बनाया जा सके । | पूर्णरस में लीन करनेवाले वाग्विधान में भी यह बात देखी जाती है कि जहाँ वह धारा के रूप में कुछ दूर तक चलता है, वहीं पूरी तन्मयता प्राप्त होती है । जहाँ सहृदय और सुकण्ठ कथावाचक सहस्रो श्रोताओं को किसी भाव में बहुत देर तक मग्न किए रहते हैं, जहाँ आल्हा गानेवाले सैकड़ो सुननेवालों को घंटों वीरदृर्प से पूर्ण किए रहते हैं, वहाँ भेदभूमि से परे एक सामान्य हृदय-सत्ता की झलक दिखाई पड़ती है। भावो का ऐसा ही अभ्यास शील-निर्माण में सहा