पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१०४

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|६७ काव्य में रहस्यवाद । करनेवाली पूर्ण भाव-पद्धति मे ये सव अवयव रखे हुए हैं। विभावो और अनुभावो की प्रतिष्ठी कवि की कल्पना द्वारा ही होती है और ओता या पाठक भी उनकी मूर्ति या रूप का ग्रहण अच्छी कल्पना के बिना पूरा-पूरा नहीं कर सकता । विभाव और अनुभाव कल्पनासाध्य है। | किसी भाव की रसात्मक प्रतीति उत्पन्न करने के लिए कविकर्म के दो पक्ष होते है-—अनुभाव-पक्ष और विभाव-पक्ष । अनुभाव-पक्ष में आश्रय के रूप, चेष्टा और वचन का और विभाग-पक्ष में आलम्वन । के रूप, चेष्टा और वचन का विन्यास होता है । इस दृष्टि से शृङ्गाररस में स्त्रियो के जो हाव या अलङ्कार माने गए हैं। वे विभाव-पक्ष के अन्तर्गत होगे, अनुभाव-पक्ष के नहीं । नायिकाओं में अलङ्कार की। योजना उनकी मनोमोहकता बढ़ाने के लिए उन्हें और सनोहर रूप प्रदान करने के लिए होती है, भाव की व्यञ्जना के उद्देश्य से नही । नायिका को आलम्बन मानकर, उद्दीपन की दृष्टि से ही, उसमें उन चेष्टाओ का विधान होता है जो हाव और अलङ्कार कहलाती हैं । अनुभाव और विभाव दोनों पक्षो के विधान के लिए भी और सम्यक् ग्रहण के लिए भी कल्पना-शक्ति अपेक्षित है। विधान के लिए कवि में - ‘विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और सम्यक् ग्रहण के लिए पाठक या ओता मे ग्राहक कल्पना' ।। रसात्मक प्रतीति एक ही प्रकार की नही होती । दो प्रकार की अनुभूति तो लक्षण-ग्रन्थो की रस-पद्धति के भीतर ही, सूक्ष्मता से विचार करने से मिलती है । भारतीय भावुकता काव्य के दो प्रकार के ५ प्रभाव स्वीकार करती है (१) जिस भाव की व्यञ्जना हो उसी भाव में लीन हो जाना ।। (२) जिस भाव की व्यञ्जनी हो उसमें लीन न होना ; पर उसकी व्यञ्जना की स्वाभाविकता और उत्कर्ष का हृदय से अनुमोदन करना।