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लज्जा और ग्लानि

निर्लज्ज होते हैं, जो दूसरों की बुरी धारणा की भी तब तक परवा नहीं करते जब तक उससे किसी उन फल की आशङ्का नहीं होती, उनके कर्म प्रायः इतने बुरे, इतने असह्य हुआ करते हैं कि दूसरे उन्हें बुरा समझ कर ही नहीं रह जाते, छिः छिः करके ही सन्तोष नहीं कर लेते; मरम्मत करने के लिए भी तैयार हो जाते है, जिससे उन्हें कभी भयभीत होना पड़ता है, कभी सशङ्क।

मनुष्य लोक-बद्ध प्राणी है इससे वह अपने को उनके कर्मों के गुण-दोष का भी भागी समझता है जिनसे उसका सम्बन्ध होता है, जिनके साथ में वह देखा जाता है। पुत्र की अयोग्यता और दुराचार, भाई के दुर्गुण और असभ्य व्यवहार आदि का ध्यान करके भी दस आदमियों के सामने सिर नीचा होता है। यदि हमारा साथी हमारे सामने किसी तीसरे आदमी से बातचीत करने से भारी मूर्खता का प्रमाण देता है, भद्दी और ग्राम्य भाषा का प्रयोग करता है, तो हमें भी लज्जा आती है। मैंने कुत्ते के कई शौक़ीनों को अपने कुत्ते की बदतमीज़ी पर शरमाते देखा है। जिसे लोग कुमार्गी जानते हैं उसके साथ यदि हम कमी देवमन्दिर के मार्ग पर भी देखे जाते हैं तो सिर झुका लेते हैं या बग़लें झाँकते हैं। बात यह है कि जिसके साथ हम देखे जाते हैं उसका हमारा कितनी बातों में कहाँ तक साथ है, दूसरों को इसके अनुमान की पूरी स्वच्छन्दता रहती है, उनकी कल्पना की काई सीमा हम तत्काल बाँध नहीं सकते।

किसी बुरे प्रसंग में यदि निमित्त रूप से भी हमारा नाम आ जाता है तो हमें लज्जा होती है—चाहे ऐसा हमारी जानकारी में हुआ हो, चाहे अनजान में। यदि बिना हमें जताए हमारे पक्ष में कोई कुचक्र रचा जाय तो उसका वृत्तान्त फैलने पर हमें लज्जा क्या ग्लानि तक हो सकती है। लज्जा का होना तो ठीक हैं क्योकि वह दूसरों की धारणा के कारण होती है; अपनी धारणा के कारण नहीं। पर ग्लानि कैसे होती है, 'हम बुरे या तुच्छ हैं।' यह धारणा कहाँ से आती है, यही देखना है। अपमान होने पर यदि क्रोध के लिए स्थान हुआ