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रसात्मक-बोध के विविध रूप

का संकेत है; रागात्मक हृदय उसके व्यापक (Immanent) स्वरूप का। ज्ञान ब्रह्म है तो हृदय ईश्वर है। किसी व्यक्ति या वस्तु को जानना ही वह शक्ति नहीं है जो उस व्यक्ति या वस्तु की हमारी अन्तस्सत्ता में सम्मिलित कर दे। वह शक्ति है राग या प्रेम।

जैसा कह आए हैं, रति, हास और करुणा से सम्बद्ध स्मरण अधिकतर रसक्षेत्र में प्रवेश करता है। प्रिय का स्मरण, बालसखाओं का स्सरण, अतीत-जीवन के दृश्यों का स्मरण प्रायः रतिभाव से सम्बद्ध स्मरण होता है। किसी दीन दुखी या पीड़ित व्यक्ति के, उसकी विवर्ण आकृति चेष्टा आदि के स्मरण का लगाव करुणा से होता है। दूसरे भावों के आलम्बनों का स्मरण भी कभी रस-सिक्त होता है—पर वहीं जहाँ हम सहृदय द्रष्टा के रूप में रहते हैं अर्थात् जहाँ आलम्बन केवल हमारी ही व्यक्तिगत भावसत्ता से सम्बन्ध नहीं, सम्पूर्ण नर-जीवन की भावसत्ता से सम्बद्ध होते हैं।

(ख) प्रत्यभिज्ञान

अब हम उस प्रत्यक्ष-मिश्रित स्मरण को लेते हैं जिसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान में थोड़ा सा अंश प्रत्यक्ष होता है और बहुत सा अंश उसी के संबन्ध से स्मरण द्वारा उपस्थित होता है। किसी व्यक्ति को हमने कहीं देखा और देखने के साथ ही स्मरण किया कि यह वही है जो अमुक स्थान पर उस दिन बहुत से लोगों के साथ झगड़ा कर रहा था। वह व्यक्ति हमारे सामने प्रत्यक्ष है। उसके सहारे से हमारे मन में झगड़े का वह सारा दृश्य उपस्थित हो गया जिसका वह एक अंग था। "यह वही है" इन्हीं शब्दों में प्रत्यभिज्ञान की व्यंजना होती है।

स्मृति के समान प्रत्यभिज्ञान में भी रस-संचार की बड़ी गहरी शक्ति होती है। बाल्य या कौमार जीवन के किसी साथी के बहुत दिनों पीछे सामने आने पर कितने पुराने दृश्य हमारे मन के भीतर