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रसात्मक-बोध के विविध रूप

पात्र (आश्रय) का ही आलम्बन नहीं रहता बल्कि पाठक या श्रोता को भी—एक ही नहीं अनेक पाठकों और श्रोताओं का भी—आलम्बन हो जाता है। अतः उस आलम्बन के प्रति व्यंजित भाव में पाठकों या श्रोताओं का भी हृदय योग देता हुआ उसी भाव का रसात्मक अनुभव करता है। तात्पर्य यह है कि रस-दशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् काव्य में प्रस्तुत विषय को हम अपने व्यक्तित्व से सम्बद्ध रूप में नहीं देखते, अपनी योग-क्षेम-वासना की उपाधि से ग्रस्त हृदय द्वारा ग्रहण नहीं करते; बल्कि निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं। इसी को पाश्चात्य समीक्षापद्धति में अहं का विसर्जन और निःसंगता (Impersonality and Detachment) कहते हैं। इसी को चाहे रस का लोकोत्तरत्व या ब्रह्मानन्द-सहोदरत्व कहिए, चाहे विभावन-व्यापार का अलौकिकत्व अलौकिकत्व का अभिप्राय इस लोक से सम्बन्ध न रखनेवाली कोई स्वर्गीय विभूति नहीं। इस प्रकार के केवल भाव-व्यंजक (तथ्य-बोधक नहीं) और स्तुति परक शब्दों को समीक्षा के क्षेत्र में घसीटकर पश्चिम में इधर अनेक प्रकार के अर्थशून्य वागाडम्बर खड़े किए गए थे। 'कला कला के लिए' नामक सिद्धान्त के प्रसिद्ध व्याख्याकार डाक्टर ब्रैडले बोले "काव्य आत्मा है"। डा॰ मकेल साहब ने फरमाया "काव्य एक अखण्ड तत्त्व या शक्ति है जिसकी गति अमर है"।*[१] बंगभाषा के प्रसाद से हिन्दी में भी इस प्रकार के अनेक मधुर कलाप सुनाई पड़ा करते हैं।

अब प्रस्तुत विषय पर आते हैं। हमारा कहना यह है कि जिस प्रकार काव्य में वर्णित आलम्बनों के कल्पना में उपस्थित होने पर साधारणीकरण होता है उसी प्रकार हमारे भावों के कुछ आलम्बनों के


  1. Poetry is a Spirit—Bradeley
    Poetry is a continuous substance or energy whose Progress is immortal—Maekail