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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

जो सपने नहिं कान, सो जय-आरज शब्द" को सुन और "फरकि उठीं सब की भुजा, खरकि उठीं तरवार। क्यों आपुहि ऊँचे भए आर्य मोंछ के बार" का कारण जान प्राचीन आर्य्यगौरव का गर्व कुछ आ ही रहा था कि वर्त्तमान अधोगति का दृश्य ध्यान में आया और फिर वही 'हाय भारत!' की धुन—

हाय वहै भारत-भुव भारी। सबही विधि सों भई दुखारी।
हाय पंचनद! हा पानीपत! अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत॥
हाय चितौर! निलज तुभारी। अजहुँ खरो भारतहि मँझारी।
तुममें जल नहि जमुना गंगा! बढ़हु बेगि किन प्रबल तरंगा॥
बोरहु किन झट मथुरा कासी। धोवहु यह कलंक की रासी।

'चित्तौर', 'पानीपत', इन नामों में ही इतिहास-विज्ञ हिन्दू-हृदय के लिए कितने भावों की व्यंजना भरी है। उनके लिए ये नाम ही काव्य हैं। यदि कोई कवि केवल इन दो-चार नामों को एक साथ ले ले तो वह अपना बहुत कुछ काम कर चुका। ये आप ही कल्पना के कपाट खोल ऐसे-ऐसे दृश्य सामने ला देंगे जिनसे क्षुब्ध होकर हृदय अनेक गम्भीर भावनाओं में मग्न हो जायगा।

'भारतदुर्दशा' में आलस्य आदि को लाकर इस कवि ने देशदशा को इस ढंग से झलकाया है कि नए और पुराने दोनो ढाँचों के लोगों का मन लगे। इस कलाकार में बड़ा भारी गुण यह था कि इसने नए और पुराने विचारों को अपनी रचनाओं में इस सफाई से मिलाया कि कहीं से जोड़ मालूम न हुआ। पुराने भावों और आदर्शों को लेकर इन्होंने नए आदर्श खड़े किये। देखिये, 'नीलदेवी' में एक देवता के मुँह से भारतवर्ष का कैसा मर्मभेदी भविष्य कहलाया है—

सब भाँति दैव प्रतिकूल होय एहि नासा।
अब तजहु वीर वर भारत की सब आसा॥
अब सुख-सूरज को उदय नहीं इत ह्वैहै।
मंगलमय भारत-भुव मसान ह्वै जैहै॥

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