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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

के स्थान पर "जौन", 'माँ' के स्थान पर "मतारी", 'यहाँ' के स्थान पर "इहाँ", 'देखूँगी' के स्थान पर "देखौंगी" ऐसे शब्द बराबर मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रजभाषा या काव्य भाषा के ऐसे ऐसे प्रयोग जैसे "फूलन्ह के" "चहुँदिशि" "सुनि" भी लगे रह गए हैं।

इन दोनों के पीछे राजा शिवप्रसाद और लक्ष्मणसिंह का समय आता है।

राजा शिवप्रसाद के गद्य में अधिक खटकनेवाली बात थी उर्दूपन जो दिन-दिन बढ़ता गया। इसी प्रकार राजा लक्ष्मणसिंह के गद्य में खटकनेवाली बात थी आगरे की बोलचाल का पुट। दूसरी बात यह थी कि विशुद्धता का जो आदर्श लेकर राजा लक्ष्मणसिंह चले थे वह एक चलती व्यावहारिक भाषा के उपयुक्त न था। फ़ारसी-अरबी के जो शब्द लोगों की ज़बान पर नाचा करते थे उन्हें एकदम छोड़ देना भाषा की संचित शक्ति को घटाना था। हँसी-मज़ाक के लिए कुछ अरबी-फारसी के चलते शब्द कभी-कभी कितना अच्छा काम देते हैं, यह हम लोग बराबर देखते हैं।

ऊपर लिखी त्रुटियों को ध्यान में रखते हुए जब हम भारतेन्दु की भाषा पर विचार करने बैठते हैं तब इस बात को समझना कुछ सुगम हो जाता है कि उन्होंने हिन्दी-गद्य का क्या संस्कार किया। उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आने पाया, न मुंशी सदासुख का पण्डिताऊपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन, ने राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन, और न राजा लक्ष्मणसिंह का खालिसपन और आगरापन। इतने 'पनों' से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के सम्बन्ध में बहुत ही परिष्कृत रुचि का परिचय देता है। संस्कृत-शब्दों के रहने पर भी भाषा का सुबोध बना रहना, फ़ारसी-अरबी के शब्द आने पर भी साथ-साथ उर्दूपन न आना, हिन्दी की स्वतन्त्र सत्ता का प्रमाण था। उनका भाषा-संस्कार शब्दों की काट-छाँट तक ही नहीं रहा। वाक्य-विन्यास में भी वे सफ़ाई लाए। उनकी लिखावट में एक साथ न जुड़ सकनेवाले वाक्य में एक गँथे हुए प्रायः नहीं पाए जाते।