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कविता क्या है

 

कविता की भाषा

कविता में कही गई बात चित्र-रूप में हमारे सामने आनी चाहिए, यह हम पहले कह आए हैं। अतः उसमें गोचर रूपों का विधान अधिक होता है। वह प्रायः ऐसे रूपों और व्यापारों को ही लेती है जो स्वाभाविक होते हैं और संसार में सबसे अधिक मनुष्यों को सबसे अधिक दिखाई पड़ते हैं।

अगोचर बातों या भावनाओं को भी, जहाँ तक हो सकता है, कविता स्थूल गोचर रूप में रखने का प्रयास करती है। इस मूर्तिविधान के लिए वह भाषा की लक्षण-शक्ति से काम लेती है। जैसे, "समय बीता जाता है" कहने की अपेक्षा "समय भागा जाता है" कहना वह अधिक पसन्द करेगी। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना, उदासी टपकना इत्यादि ऐसी ही कवि-समय-सिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोलचाल में रूढ़ि होकर आ गई है। लक्षणा-द्वारा स्पष्ट और सजीव आकार-प्रदान का विधान प्रायः सब देशों के कवि-कर्म में पाया जाता है। कुछ उदाहरण देखिए—

(क) धन्य भूमि बनपंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी।
(ख) मनहु उमगि अँग अँग छबि छलकै।—तुलसी।
(ग) चूनरि चारु चुई सी परे।
(घ) बनन में बागन में बगरो बसन्त है।—पद्माकर।
(ङ) बृन्दाबन-बागन पै बसन्त बरसो परै।—पद्माकर।
(च) हौं तो श्यामरंग में चोराय, चित्त चोराचोरी बोरत तो बोरयो पै निचोरत बनै नहीं।—पद्माकर।
(छ) एहो नन्दलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल, हाल ही चलो, तौ चलौ, जोरे जुरि जायगो।