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चिन्तामणी


घृणा के विषय में मतभेद का एक और कारण ग्राह्य और अग्राह्य होने के लिए विषय-मात्रा की अनियति है। सृष्टि में बहुत-सी वस्तुओं के बीच की सीमाएँ अस्थिर हैं। एक ही वस्तु, व्यापार या गुण किसी मात्रा में श्रद्धा का विषय होता है, किसी मात्रा में अश्रद्धा का। इसके अतिरिक्त शिक्षा और संस्कार के कारण एक ही मात्रा का प्रभाव प्रत्येक हृदय पर एक ही प्रकार का नहीं पड़ता। यह नहीं है कि एक बात एक आदमी को जहाँ तक अच्छी लगती है वहाँ तक दूसरे को भी अच्छी लगे। मन में प्रतिकूल बातें रखकर मुँह पर अनुकूल बातें कहनेवाले को एक आदमी शिष्ट और दूसरा कुटिल कहता है। उपचार या मुँह पर प्रसन्न करनेवाली बात कहने को जहाँ तक एक आदमी शिष्टता समझता चला जाता है दूसरा वहाँ से कुटिलता का आरम्भ मान तो लेहै। दो-चार बार किसी आदमी को थोड़ी-थोड़ी बात पर रोते या कोप करते देखकर एक तो उसको दुर्बलचित्त और उद्वेगशील समझता है और दूसरा उसी को थोड़ी-थोड़ी बात पर विलाप करते और आपे के बाहर होते दस बार देखकर भी उसे सहृदय कहता है। रसिक लोग शुष्कहृदय लोगों से घृणा करते हैं और शुष्क-हृदय लोग रसिकों से। यदि ये दोनों मिलकर एक दिन शुष्कता और रसिकता की सीमा तै कर डालें तो झगड़ा मिट जाय। शुष्कहृदय लोग नाप-तौलकर यह बतला दें कि यहाँ तक की रसिकता शोहदापन या विषयासक्ति नहीं है और रसिक लोग यह बतला दें कि यहाँ तक की शुष्कता कठोर-हृदयता नहीं है, वस झगड़ा साफ़। पर यह हो नहीं सकता। दृढ़ता और हठ, धीरता और आलस्य, सहनशीलता और भीरुता, उदारता और फ़ज़ूलख़र्ची, किफायत और कंजूसी आदि के बीच की सीमाएँ सब मनुष्यों के हृदय में न एक हैं और न एक होंगी।

मनोविकार दो प्रकार के होते है—प्रेष्य और अप्रेष्य। प्रेष्य वे हैं जो एक के हृदय में पहले के प्रति उत्पन्न होकर दूसरे के हृदय में भी पहले के प्रति उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे क्रोध, घृणा, प्रेम इत्यादि। जिस पर हम क्रोध करेंगे वह (हमारे क्रोध के कारण) हम पर भी क्रोध कर