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चाँदी की डिबिया
[ अड़्क २
 

दीजिये"--- हुज़ूर एक आदमी रखलें"---"मेरी बीबी और तीन बच्चे हैं," इन बातों से मेरा जी ऊब गया। इससे तो अच्छा यही है, कि यहीं पड़े पड़े मर जाऊँ। लोग मुझसे कहते हैं "जोन्स, कल जुलूस में शरीक हो जाव, एक झंडा उठा लो, और लालमुंह वाले नेताओं की बातें सुनो। फिर अपना सा मुंह लिए घर लौट जाव"। कुछ लोगों को यह पसंद होगा। जब मैं काम की टोह में जाता हूँ और उन बदमाशों को अपनी ओर सिर से पैर तक ताकते देखता हूँ, तो जान पड़ता है मेरे हजारों साँप काट रहे हैं। मैं किसी से कोई रियायत नहीं चाहता। एक आदमी पसीने की कमाई खाना चाहता है, पर उसे काम नहीं मिलता। कैसी दिल्लगी है! एक आदमी छाती फाड़ कर काम करना चाहता है, कि किसी तरह प्राण बचें ओर उसे कोई नहीं पूछता! यह न्याय है!---यह स्वाधीनता है! और न जाने क्या-क्या है।

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