अलका—तब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजमन्दिर छोड़कर चली जाऊँ।
राजा—कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका?
अलका—गांधार में विद्रोह मचाऊँगी!
राजा—नहीं अलका, तुम ऐसा नहीं करोगी।
अलका—करूँगी महाराज, अवश्य करूँगी।
राजा—फिर मैं पागल हो जाऊँगा! मुझे तो विश्वास नहीं होता।
आम्भीक—और तब अलका, मैं अपने हाथो से तुम्हारी हत्या करूँगा।
राजा—नहीं आम्भीक! तुम चुप रहो! सावधान! अलका के शरीर पर जो हाथ उठाना चाहता हो, उसे मैं द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ।
[आम्भीक सिर नीचा कर लेता है]
अलका—तो मैं जाती हूँ पिता जी!
राजा—(अन्यमनस्क भाव से सोचता हुआ)—जाओ।
[अलका चली जाती है]
राजा—आम्भीक!
आम्भीक—पिता जी!
राजा—लौट आओ।
आम्भीक—इस अवस्था में तो लौट आता, परन्तु वे यवन-सैनिक छाती पर खडे़ हैं। पुल बँध चुका है। नहीं तो पहले गांधार का ही नाश होगा।
राजा—अब?—(निश्वास लेकर)—जो होना हो सो हो। पर एक बात आम्भीक! आज से मुझसे कुछ न कहना। जो उचित समझो करो। मैं अलका को खोजने जाता हूँ। गांधार जाने और तुम जानो।
[वेग से प्रस्थान]