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चन्द्रगुप्त
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चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि, मेरी वृत्ति, वही मिल जाय, मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझे राष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या। तो चलूँ।—(देखकर)—यह एक लकड़ी का स्तम्भ अभी उसी झोपड़ा का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँ लिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण; चढ़ा रहता था! शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!

[खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है]