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प्रथम अंक
 

और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयं वाल्हीक तक...

आम्भीक—बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?

सिंह॰—कुछ नहीं।

आम्भीक—नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।

सिंह॰—गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है; अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार।

अलका—भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छन्द हृदय में कितना बलवान वेग हैं! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।

आम्भीक—चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नही है, जो यों ही उड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।

[चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है]

सिंह॰—हाँ-हाँ, रहस्य हैं! यवन-आक्रमणकारियों के पुष्कल-स्वर्ण से पुलकित होकर, आर्य्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा में, उत्तरापथ की अर्गला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार! संभवत तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्घाटन करने गये थे?

आम्भीक—(पैर पटक कर)—ओह, असह्य! युवक, तुम बन्दी हो।

सिंह॰—कदापि नही, मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।

[अम्भीक तलवार खींचता है।]

चन्द्रगुप्त—(सहसा प्रवेश करके)—ठीक है, प्रत्येक निरपराध आर्य्य स्वतन्त्र हैं, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकती है। यह क्या राजकुमार! खड्ग को कोश में स्थान नही है क्या?

सिंह॰—(व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है।

आम्भीक—तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालव को तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल—मृत्यु-दण्ड—अवश्य भोगना पड़ेगा।