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चन्द्रगुप्त
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सिंह॰—एक मालव।

आ‌म्भीक—नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।

सिंह॰—तक्षशिला गुरुकुल का एक छात्र।

आम्भीक—देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।

सिंह॰—कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होना मालवों का वंशानुगत-चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भी गर्व है।

आम्भीक—परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे! और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?

[चाणक्य चुप रहता है]

आम्भीक—(क्रोध से)—बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में रह कर, मेरे अन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!

चाणक्य—राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है, स्वराज्य में विचरता है और अमृत हो कर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आम्भीक—वह काल्पनिक महत्त्व मायाजाल है; तुम्हारे प्रत्यक्ष नीच कर्म्म उन पर पर्दा नहीं डाल सकते।

चाणक्य—सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी से दस्यु और म्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्के की राह देख रही है।

आम्भीक—और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखा रहे हो!

सिंह॰—विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही कर सकते हैं, जिनके हाथ में कुछ अधिकार हो—जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल