पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/४०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९

सिल्यूकस की ओर से एक राजदूत का रहना स्थिर हुआ । मेगस्थनीज ही प्रथम राजदूत नियत हुआ । यह तो सब हुआ, पर नीति-चतुर सेल्युकस ने एक और बुद्धिमानी का कार्य यह किया कि चन्द्रगुप्त से अपनी सुन्दरी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया, जिसे चन्द्रगुप्त ने स्वीकार कर लिया और दोनो राज्य एक सम्बन्ध-सूत्र में बँध गये । जिसपर सन्तुष्ट होकर वीर चन्द्रगुप्त ने ५०० हाथियो की एक सेना सिल्यूकस को दी और अब चन्द्रगुप्त का राज्य भारतवर्ष में सर्वत्र हो गया । रुद्रदामा के लेख से ज्ञात होता है कि पुष्पगुप्त उस प्रदेश का शासक नियत किया गया था जो सौराष्ट्र और सिन्ध तथा राजपूताना तक था । अब चन्द्रगुप्त के अधीन दो प्रादेशिक शासक और हुए, एक तक्षशिला मे, दूसरा सौराष्ट्र में । इस तरह से अध्यवसाय का अवतार चन्द्रगुप्त प्रबल पराऋन्त राजा माना जाने लगा और ग्रीस, मिश्र, सीरिया इत्यादि के नरेश, उसकी मित्रता से अपना गौरव समझते थे ।

उत्तर में हिन्दूकुश, दक्षिण मे पाडुचेरी और कनानूर, पूर्व में आसाम और पश्चिम में सौराष्ट्र, समुद्र तथा वाल्हीक तक, चन्द्रगुप्त के राज्य की सीमा निर्धारित की जा सकती है।



चन्द्रगुप्त का शासन

गंगा और शोण के तट पर मौर्य्य-राजधानी पाटलीपुत्र बसा था। दुर्ग---पत्थर, ईंट तथा लकड़ी के बने हुए सुदृढ प्राचीर से परिवेष्ठित था। नगर ८० स्टेडिया लम्बा और ३० स्टेडियो चौडा था। दुर्ग में ६४ द्वार तथा ५७० बुर्ज थे । सौध-श्रेणी, राजमार्ग, सुविस्तृत पण्य-वीथिका से नगर पूर्ण था और व्यापारियो की दूकाने अच्छे प्रकार से सुशोभित और सज्जित रहती थी। भारतवर्ष की केन्द्र नगरी कुसुमपुरी
————————————————

"पुष्पगुप्त ही ने उस पहाड़ी नदी का वॉध, महाराज चन्द्रगुप्त की आज्ञा से इसलिए बनाया कि खेती को बहुत लाभ होगा और उस बड़ी झील का नाम सुदर्शन रक्खा ।