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को राज्य मिला, जिसने २२ वर्ष राज्य किया। इसके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला। यदि बुद्ध का निर्वाण ५४३ ई० पूर्व में मान लिया जाय, तो उसमें से नन्दराज्य तक का समय १६२ घटा देने से ३८१ ई० पूर्व में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि मानी जायगी । पर यह सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योकि ग्रीक इतिहास-लेखको ने लिखा है कि "तक्षशिला में जब ३२६ ई० पूर्व में सिकन्दर से चन्द्रगुप्त ने भेट किया था, तब वह युवक राजकुमार था । अस्तु, यदि हम उसकी अवस्था उस समय २० बर्ष के लगभग मान ले, जो कि असगत न होगी, तो उसका जन्म-समय ३४६ ई० पूर्व के लगभग हुआ होगा । मगध के राजविद्रोह-काल में वह १९ या २० वर्ष का रहा होगा ।”

मगध से चन्द्रगुप्त के निकलने की तिथि ई० पूर्व ३२७ वा ३२८ निर्धारित की जा सकती है, क्योकि ३२६ मे तो वह सिकन्दर से तक्षशिला में मिला ही था । उसके प्रवास की कथा बडी रोचक है । सिकन्दर जिस समय भारतवर्ष में पदार्पण कर रहा था और भारतीय जनता के सर्वनाश का उपक्रम तक्षशिलाधीश्वर ने करना विचार लिया था----वह समय भारत के इतिहास में स्मरणीय है, तक्षशिला नगरी अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी । जहाँ का विश्वविद्यालय पाणिनि और जीवक ऐसे छात्रो का शिक्षक हो चुका था--वही तक्षशिला अपनी स्वतन्त्रता पद-दलित कराने की आकांक्षा में आकुल थी और उसका उपक्रम भी हो चुका था। कूटनीति-चतुर सिकन्दर ने, जैसा कि ग्रीक लोग कहते हैं, १,००० टेलेट ( प्राय ३८,००,००० अडतीस लाख रुपया ) देकर लोलुप देशद्रोही तक्षशिलाधीश को अपना मित्र बनाया। उसने प्रसन्न मन से अपनी कायरता का मार्ग खोल दिया और बिना बाधा सिकन्दर को भारत में आने दिया। ग्रीक ग्रंथकारो के द्वारा हम यह पता पाते हैं कि ( ई० पूर्व ३२६ मे ) उसी समय चन्द्रगुप्त शत्रुओं से बदला लेने के उद्योग में अनेक प्रकार का कष्ट, मार्ग में झेलते-झेलते भारत की अर्गला तक्षशिला नगरी में पहुँचा था। तक्षशिला के राजा