राक्षस––चारी ओर अर्थ्य-सेना! कही से निकलने का उपाय नही। क्या किया जाय सुवासिनी!
सुवा०––यह तपोवन हैं, यही कही हम लोग छिप रहेगे।
राक्षस––पै देश-द्रोही, ब्राह्मण-द्रोही बौद्ध! हृदय कॉप रहा है। क्या होगा?
सुवा––आर्य्यो को तपोवन इन राग-द्वेपो मे परे है।
राक्षस––तो चलो कही।––( सामने देखकर )―–सुवासिनी! वह देखो––वह कौन?
सुवा०––( देखकर ) आर्य्य चाणक्य।
राक्षस––आर्य्य-साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में!
सुवा०––यही तो ब्राह्मण की महत्ता है राक्षम्! यो तो मूर्खो की निवृत्ति भी प्रवृत्तिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य्य-रश्मियो का-सा रसग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृत्तिपूर्ण हैं!
'राक्षस––सचमुच मेरा भ्रम था सुवासिनी! मेरी इच्छा होती है कि चल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लू और क्षमा माँग लू!
सुवा०––बडी अच्छी बात सोची तुमने। देखो―
चाणक्य--( आँख खोलता हुआ )––कितना गौरवमये आज का अरुणोदय है! भगवान् सविता, तुम्हारा आलोक, जगत् का मंगल करे। मै आज जैसे निष्काम हो रहा हैं। विदित होता है कि आज तक जो कछ किया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आई। आज मझे अपने अन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरग