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फिर से जी उठने पर पहिले ही से शका थी, विरोध किया। तब उस योगनन्द राजा ने चिढकर उसको कैद कर लिया और वररुचि को अपना मंत्री बनाया । योगनन्द बहुत विलासी हुआ, उसने सर्व राज्य- भार मंत्री पर छोड़ दिया। उसकी ऐसी दशा देखकर वररुचि ने शकटार को छुडाया और दोनों मिलकर राज्य-कार्य्य करने लगे। एक दिन योगनन्द की रानी के चित्र में उरोकी जाँघ पर एक तिल बना देने से राजा ने वररुचि पर शका कर के शकटार को उसके मार डालने की आज्ञा दी । पर शकटार ने अपने उपकारी को छिपा रक्खा।

योगनन्द के पुत्र हिरण्यगुप्त ने जंगल में अपने मित्र रीछ से विश्वासघात किया । इससे वह पागल और गूंगा हो गया । राजा ने कहा---“यदि वररुचि होता, तो इसका कुछ उपाय करता ।” अनुकूल समय देखकर शकटार ने वररुचि को प्रकट किया। वररुचि ने हिरण्यगुप्त का सब रहस्य सुनाया और उसे नीरोग किया । इसपर योगनन्द ने पूछा कि तुम्हे यह बात कैसे ज्ञात हुई ? वररुचि ने उत्तर दिया--"योगबल से; जैसे रानी की जाँघ का तिल ।” राजा उसपर बहुत प्रसन्न हुआ, पर वह फिर न ठहरा और जंगल मे चला गया। शकटार ने समय ठीक देखकर चाणक्य-द्वारा योगनन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को राज्य दिलाया।”

ढुढि ने भी नाटक में वृपल और मौर्य्य शब्द का प्रयोग देखकर चन्द्रगुप्त को मुरा का पुत्र लिखा है, पर पुराणो मे कही भी चन्द्रगुप्त को बृपल या शूद्र नहीं लिखा है । पुराणों में जो शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है वह शूद्रजान महापद्य के वंश के लिए है, यह नीचे लिखे हुए विष्णु-पुराण के उद्धृत अंश पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जायगा--

ततौमहानन्दी १८ इत्येक शेशुनाका भूपालस्त्रिवर्पशतानि द्विपष्ठयविकानि भविग्यन्नि १९ महानन्दिनस्तत. शूद्रागर्भोद्भवीति- लुब्ऽबोतिबली महापद्मनामनन्द परशुराम उवापरोसिलक्षत्रियनाशकारी भविष्यनि २० तन. प्रकृति शूद्रा भूपाला भविष्यन्ति २१ से