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सिन्धु-तट—पर्णकुटीर। चाणक्य और कात्यायन

चाणक्य—कात्यायन, सो नहीं हो सकता! मैं अब मंत्रित्व नहीं ग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगध का अनिष्ट ही करोगे।

कात्या॰—तब मैं क्या करूँ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राज-काज में पड़ना अच्छा नहीं लगता।

चाणक्य—जब तक गांधारा का उपद्रव है, तब तक तुम्हें बाध्य होकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है?

कात्या॰—राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिये वहीं रहता है और यह सारा कुचक्र उसी का है! वह इन दिनों वाल्हीक की ओर गया है। मैं अपना वार्तिक पूरा कर चुका, इसीलिए मगध से अवकाश लेकर आया था। चाणक्य, अब मैं मगध जाना चाहता हूँ। यवन शिविर में अब मेरा जाना असम्भव है।

चाणक्य—जितना शीघ्र हो सके, मगध पहुँचो। मैं सिंहरण को ठीक रखता हूँ। तुम चन्द्रगुप्त को भेजो। सावधान, उसे न मालूम हो कि मैं यहाँ हूँ! अवसर पर मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा। देखो, शकटार और तुम्हारे भरोसे मगध रहा है! कात्यायन, यदि सुवासिनी को भेजते तो कार्य में आशातीत सफलता होती। समझे?

कात्या॰—(हँसकर)—यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई कि तुम...सुवासिनी अच्छा... विष्णुगुप्त! गार्हस्थ्य जीवन कितना सुन्दर है!

चाणक्य—मूर्ख हो, अब हम-तुम साथ ही ब्याह करेंगे।

कात्यायन—मैं? मुझे नहीं... मरी गृहिणी तो है।

चाणक्य—(हँसकर)—एक ब्याह और सही। अच्छा बताओ, कामकहाँ तक हुआ?