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चतुर्थ अंक
 


कात्या॰—विष्णुगुप्त, तुमने समझकर ही तो ऐसा किया होगा। फिर भी मौर्य्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को...

चाणक्य—बुरा लगेगा! क्यों? भला लगने के लिए मैं कोई काम नहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है। तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम भी चले जाओ, बको मत!

[कात्यायन का प्रस्थान]

चाणक्य—कारण समझ में नहीं आता—यह वात्याचक्र क्यों? (विचारता हुआ) क्या कोई नवीन अध्याय खुलने वाला है? अपनी विजयों पर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या? (सोचता है)

[सुवासिनी का प्रवेश]

सुवा॰—विष्णुगुप्त!

चाणक्य—कहो सुहासिनी!

सुवा॰—अभी परिषद्‌-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुःखी दिखाई दिये, तुमने अपमान किया क्या?

चाणक्य—यह तुमसे किसने कहा? इस उत्सव को रोक देने से साम्राज्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मौर्य्यों का जो कुछ है, वह मेरे दायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उपरदायी हूँ। और, पितृत्व-तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूँगा, यह तुम्हें कैसे विश्वास हुआ?

सुवा॰—तो राक्षस ने ऐसा क्यों...?

चाणक्य—कहा? ऐं? सो तो कहना ही चाहिए। और तुहारा भी उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों न सुवासिनी?

सुवा॰—विष्णुगुप्त! मैं एक समस्या में डाल दी गयी हूँ।

चाणक्य—तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित्‌ यह ठीक भी है।

सुवा॰—व्यंग्य न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझे इसका विश्वास है।

चाणक्य—मैं तुमसे बाल्य-काल से परिचित हूँ, सुवासिनी! तुम