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के आदिपुरुष मौर्य्य इसी स्थान के अधिपति थे और यह राजवंश गौतमबुद्ध के समय में प्रतिष्ठित गिना जाता था, क्योंकि बौद्धों ने महात्मा बुद्ध के शरीर-भस्म का एक भाग पाने वालों में पिप्पली-कानन के मौर्यों का उल्लेख किया है। पिप्पली-कानन बस्ती जिले में नैपाल की सीमा पर है। वहाँ ढूह और स्तूप हैं, इसे अब पिपरहियाकोट कहते हैं। फाहियान स्तूप आदि देख कर भ्रमवश इसी को पहले कपिल-वस्तु समझा था। मि॰ पीपी ने इसी स्थान को पहले खुदवाया और बुद्धदेव की धातु तथा और जो वस्तुएँ मिलीं, उन्हें गवर्नमेंट को अर्पित किया था तथा धातु का प्रधान अंश सरकार ने स्याम के राजा को दिया।

इसी पिप्पली-कानन में मौर्य्य लोग अपना छोटा-सा राज्य स्वतन्त्रता से संचालित करते थे, और ये क्षत्रिय थे, जैसा कि महावंश के इस अवतरण से सिद्ध होता है "मोरियान खतियान वसजात सिरीधर। चन्द्रगुप्तो सिपज्जत चाणक्को ब्रह्मणोततो।" हिन्दू नाटककार विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त को प्रायः वृषल कहकर सम्बोधित कराया है, इससे उक्त हिन्दू-काल की मनोवृत्ति ही ध्वनित होती है। वस्तुतः वृषल शब्द से तो उनका क्षत्रियत्व और भी प्रमाणित्व होता है, क्योंकि—

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातय
वृषलत्व गता लोके ब्राह्मणानामदर्शनात्।

से यही मालूम होता है कि जो क्षत्रिय लोग वैदिक क्रियाओं से उदासीन हो जाते थे, उन्हें धार्मिक दृष्टि से वृषलत्व प्राप्त होता था। वस्तुत वे जाति से क्षत्रिय थे। स्वयं अशोक मौर्य्य अपने को क्षत्रिय कहता था। यह प्रवाद भी अधिकता से प्रचलित है कि मौर्य्य-वंश मुरा नाम की शूद्रा से चला है और चन्द्रगुप्त उसका पुत्र था। यह भी कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य्य शूद्रा मुरा से उत्पन्न हुआ नन्द ही का पुत्र था। किन्तु V A Smith लिखते है—"But it is perhaps more probable that the dynasties of Mouryas and Nandas were not connected by blood."

च॰ २