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चन्द्रगुप्त
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पर्व॰—तुम नहीं जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है। तुम प्रियतमा होकर सुखी रहोगी।

कल्याणी—मैं अब सुख नहीं चाहती। सुख अच्छा है या दुःख...मैं स्थिर न कर सकी। तुम मुझे कष्ट न दो।

पर्व॰—हमारे-तुम्हारे मिल जाने से मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा। उपरापथ की संकटमयी परिस्थिति से अलग रहकर यहीं शान्ति मिलेगी।

कल्याणी—चुप रहो।

पर्व॰—सुन्दरी, तुम्हें देख लेने पर ऐसा नहीं हो सकता।

[उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ ही लेता है। कल्याणी उसी का छुरा निकाल कर उसका वध करती है,चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है।]

चन्द्रगुप्त—कल्याणी! कल्याणी! यह क्या!!

कल्याणी—वही जो होना था। चन्द्रगुप्त! यह पशु मेरा अपमान करना चाहता था—मुझे भ्रष्ट करके, अपनी संगिनी बनाकर पूरे मगध पर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य! कल्याणी ने वरण लिया थाकेवल एक पुरुष को—वह था चन्द्रगुप्त।

चन्द्रगुप्त—क्या यह सच है कल्याणी?

कल्याणी—हाँ यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए,इसलिए उस प्रणय को—प्रेम-पीड़ा को—मैं पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा, पिता! लोमैं भी आती हूँ।

[अचानक छुरी मार कर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोद में उठा लेता है।]

चाणक्य—(प्रवेश करके)—चन्द्रगुप्त! आज तुम निष्कंटक हुए!

चन्द्र॰—गुरुदेव! इतनी क्रूरता?