पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१७४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७३
तृतीय अंक
 

नाग०––तो कौन इसके उपयुक्त है?

चाणक्य––आप ही लोग इसे विचारिए।

शक०––हम लोगो का उद्धारकर्ता। उत्तरापथ के अनेक समरो का विजेता––बीर चन्द्रगुप्त!

नाग०––चन्द्रगुप्त की जय!

चाणक्य––अस्तु, बढो चन्द्रगुप्त! सिंहासन शून्य नहीं रह सकता। अमात्य राक्षस! सम्राट् का अभिषेक कीजिये!

[ मृतक हटाए जाते है ; कल्याणी दूसरी ओर जाती है ; राक्षस चन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है ]

सब नाग०––सम्राट् चन्द्रगुप्त की जय! मगध की जय!

चाणक्य––मगध के स्वतंत्र नागरिको को बधाई है! आज आप लोगो के राष्ट्र का नवीन जन्म-दिवस है । स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतत्रता वहीं तक दी जा सकती है, जहाँ दूसरो की स्वतंत्रता में बाधा न पडे। यही राष्ट्रीय नियमों का मूल है। वत्स चन्द्रगुप्त! स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमने स्वयं देख लिया है, अब मत्रि-परिपद् की सम्मति से मगध और आर्यावर्त्त के कल्याण में लगो।

( 'सम्राट चन्द्रगुप्त की जय' का घोष )
[ पटाक्षेप ]