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चन्द्रगुप्त
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चाणक्य—तब भी कुछ समझ लेना चाहिए नन्द! हम ब्राह्मण हैं, तुम्हारे लिए, भिक्षा माँग कर तुम्हें जीवन-दान दे सकते हैं। लोगे?

("नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगी" की उत्तेजना)

[कल्याणी को बन्दिनी बनाए पर्वतेश्वर का प्रवेश]

नन्द—आ बेटी, असह्य! मुझे क्षमा करो! चाणक्य, मैं कल्याणी के संग जंगल में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।

चाणक्य—नागरिक वृन्द! आप लोग आज्ञा दें—नन्द को जाने की आज्ञा!

शक॰—(छुरा निकलकर नन्द की छाती में घुसेड़ देता है) सात हत्याएँ हैं! यदि नन्द सात जन्मों में मेरे ही द्वारा मारा जय तो मैं उसे क्षमा कर सकता हूँ। मगध नन्द के बिन भी जी सकता है।

वररुचि—अनर्थ!

[सब स्तब्ध रह जाते हैं।]

राक्षस—चाणक्य, मुझे भी कुछ बोलने का अधिकार है?

चन्द्र॰—अमात्य राक्षस का बंधन खोल दो! आज मगध के सब नागरिक स्वतंत्र हैं।

[राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी का बंधन खुलता है।]

राक्षस—राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता।

चाणक्य—तब?

राक्षस—परिषद्‌ की आयोजना होनी चाहिए।

नागरिक वृन्द—राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्य की सम्मिलित परिषद्‌ की हम घोषणा करते हैं।

चाणक्य—परन्तु उत्तरापथ के समान गणतंत्र की योग्यता मगध में नहीं, और मगध पर विपत्ति की भी संभावना है। प्राचीनकाल से मगध साम्राज्य रहा है, इसीलिए यहाँ एक सबल और सुनियंत्रित शासक की आवश्यकता है। आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यवन अभी हमारी छाती पर हैं।