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पथ में चर और राक्षस

चर—छल! प्रवञ्चना!! विश्वासघात!!!

राक्षस—क्या है, कुछ सुनूँ भी!

चर—मगध से आज मेरा सखा कुरग आया है, उससे यह मालूम हुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नहीं, वह आप के शीघ्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं।

राक्षस—और सुवासिनी?

चर—सुवासिनी सुखी और स्वतंत्र हैं। मुझे चाणक्य के चर से वह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहाँ का समाचार कहा था।

राक्षस—तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ?—(विचार कर) चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। मुझे अभी निकल भागना चाहिये। सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार मेरी मुद्रा दिखा कर न किया जा सके, इसके लिए मुझे शीघ्र मगध पहुँचना चाहिये।

चर—क्या आपने मुद्रा भी दें दी हैं?

राक्षस—मेरी मूर्खता। चाणक्य, मगध मे विद्रोह कराना चाहता है।

चर—अभी हम लोगों को मगध-गुल्म मार्ग में मिल जायगा, चाणक्य से बचने के लिये उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व मेरे अधिकार में हैं, शीघ्रता कीजिये।

राक्षस—तो चलो! मै चाणक्य के हाथों का कठपुतला बन कर मगध का नाश नहीं करा सकता।

[दोनों का प्रस्थान—अलका और सिंहरण का प्रदेश]

सिंह॰—देवी! पर इसका उपाय क्या है?

अलका—उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य में तुमको सहायता करनी ही चाहिये। चन्द्रगुप्त आज कह रहे थें कि 'मगध जाऊँगा। देखूँ पर्वतेश्वर क्या कहते हैं।'