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मगध का शासन डावाडोल देखकर मगध के आठवें मौर्य नृपनि सोमशर्मा के किसी भी राजकुमार ने, जो कि अवन्ती का प्रादेशिक शासक रहा हो, अवन्ती को प्रधान राजनगर वना लिया हो,क्योकि उसकी एक ही पीढी के बाद मगध के सिंहासन पर गुंगवशियो का अधिकार हो गया । यह घटना सम्भवतः १७५ ई० पूर्व हुई होगी, क्योकि १८३ मे सोमशर्मा मगध का राजा हुआ। भट्टियो के ग्रन्थो मे लिखा है कि मौर्य्य-कुल के मूलवश से उत्पन्न हुए परमार नृपतिगण ही उस समय भारत के चक्रवर्ती राजा थे, और वे लोग कभी-कभी उज्जयिनी में ही अपनी राजधानी स्थापित करते थे।

टाड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि जिस चन्द्रगुप्त की महान् प्रतिष्ठा का वर्णन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरो से लिखा है, उस चन्द्रगुप्त का जन्म पवॉर-कुल की मौर्य्य शाखा में हुआ है। सम्भव है कि विक्रम के सौ या कुछ वर्ष पहले जब मौर्यों की राजधानी पाटलीपुत्र से हटी, तव इन लोगो ने उज्जयिनी को प्रधानता दी और यहीं पर अपने एक प्रादेशिक शासक की जगह राजा की तरह रहने लगे।

राजस्थान में पवाँर-कुल के मौर्य्य नृपतिगण ने इतिहास में प्रसिद्ध बड़े-बड़े कार्य किये, किन्तु ईसा की पहली शताब्दी से लेकर ५वी शताब्दी तक प्राय उन्हे गुप्तवशी तथा अपर जातियो से युद्ध करना पडा । भट्टियो ने लिखा है कि उस समय मौर्य्य-कुल के परमार लोग कभी उज्जयिनी को और कभी राजस्थान की धारा को अपनी राजधानी बनाते थे ।

इसी दीर्घकालव्यापिनी अस्थिरता में मौर्य्य लोग जिस तरह अपनी प्रभुता बनाये रहे, उस तरह किसी वीर और परिश्रमी जाति के सिवा दूसरा नहीं कर सकता। इसी जाति के महेश्वर नामक राजा ने विक्रम के ६०० वर्ष बाद कार्तवीय्यर्जुिन की प्राचीन महिष्मती को जो नर्मदा के तट पर थी, फिर से बसाया और उसका नाम महेश्वर रखा, उन्हीं या पौत्र दूसरा भोज हुआ । चित्राग मौर्य्य ने भी थोडे ही समय के