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शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य

कल्याणी—आर्य्य, अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए, क्योंकि सिकन्दर ने विपाशा को अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसर होने की सम्भावना नहीं, और अमात्य राक्षस आ भी गये हैं, उनके साथ मेरा जाना ही उचित है।

चाणक्य—और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय?

कल्याणी—मैं नहीं जानती।

चाणक्य—परन्तु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय भग्न हो जायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदृश इधर-उधर बहेगा।

कल्याणी—आर्य्य, मैं इन बातो को नहीं सुनना चाहती, क्योंकि समय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है।

[अमात्य राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—कौन? चाणक्य?

चाणक्य—हाँ अमात्य! राजकुमारी मगध लौटना चाहती हैं।

राक्षस—तो उन्हें कौन रोक सकता है?

चाणक्य—क्यों? तुम रोकोगे।

राक्षस—क्या तुमने सब को मूर्ख समझ लिया है?

चाणक्य—जो होंगे वे अवश्य समझे जायँगे। अमात्य! मगध की रक्षा अभीष्ट नहीं है क्या?

राक्षस—मगध विपन्न कहाँ है?

चाणक्य—तो मैं क्षुद्रकों से कह दूँ कि तुम लोग बाधा न दो, और यवनों से भी यह कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कन्धावार प्राच्य देश के सम्राट् का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम विपाशा पार होना नहीं चाहते , यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तक पहुँचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है—क्यों?