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चन्द्रगुप्त
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चन्द्र॰—नहीं।

[सैनिक का प्रस्थान]

माल॰—मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत हैं। इनकी युद्ध-पिपासा बलवती हैं। फिर युद्ध!

चन्द्र॰—तो क्या तुम इस देश की नहीं हो?

माल॰—नहीं, मैं सिन्ध की रहने वाली हूँ आर्य्य! वहाँ युद्ध-विग्रह नहीं, न्यायालयों की आवश्यकता नहीं। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोई उसका उपयोग नहीं। इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्य के प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना मेरा सिन्धुदेश हैं।

चन्द्र॰—तो यहाँ कैसे चली आई हो?

माल॰—मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखूँ। तक्षशिला में राजकुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ कि वहीं रहने लगी। उन्होंने मुझे घायल सिंहरण के साथ यहाँ भेज दिया। कुमार सिंहरण बडे़ सहृदय हैं। परन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ! कभी इन्द्रजाली, कभी कुछ! भला इतना सुन्दर रूप तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है?

चन्द्र॰—शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातों को पूँछकर क्या करोगी! (प्रस्थान)

माल॰—स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने का भय भी होता है।—अद्भुत युवक है। देखूँ कुमार सिंहरण कब आते हैं।

[पट-परिवर्तन]