के आठ सौ वर्ष पूर्व यह बड़ी घटना भारतवर्ष में हुई, जिसने भारतवर्ष
में राजपूत जाति बनाने में बड़ी सहायता दी और समय-समय पर उन्ही
राजपूत क्षत्रियों ने बड़े-बड़े कार्य किये। उन राजपुत्रो की चार
जातियो में प्रमुख परमार जाति थी और जहाँ तक इतिहास पता देता
है---उन लोगो ने भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे फैलकर नवीन जन-
पद और अक्षय कीर्ति उपार्जित की। धीरे-धीरे भारत के श्रेष्ठ राज्यवर्गों
में इनकी गणना होने लगी । यद्यपि इस कुल की भिन्न-भिन्न पैतीस
शाखाएँ है; पर सब में प्रधान और लोक-विश्रुत मौर्य नाम की शाखा
हुई । भारत का श्रृंखलाबद्ध इतिहास नही है, पर बौद्धो के बहुत-से
शासन-सम्बन्धी लेख और उनकी धर्म-पुस्तको से हमें बहुत सहायता
मिलेगी, क्योकि उस धर्म को उन्नति के शिखर पर पहुँचानेवाला उसी
मौर्य्य-वशं का सम्राट अशोक हुआ है । बौद्धो के विवरण से ज्ञात होता
है, कि शैशुनाक-वशी महानन्द के सकर-पुत्र महापद्म के पुत्र धननन्द
से मगध का सिंहासन लेनेवाला चन्द्रगुप्त मोरियो के नगर का राज-
कुमार था। यह मोरियो का नगर पिप्पली-कानन था, और पिप्पली-
कानन के मौर्य नृपति लोग भी बुद्ध के शरीर-भस्म के भाग लेनेवालो
मे एक थे ।
मौर्य्य लोगो की उस समय भारत में कोई दूसरी राजधानी न थी ।
यद्यपि इस बात का पता नही चलता, कि इस वंश के आदिपुरुषो में
से किसने पिप्पली-कानन में मौर्यों की पहली राजधानी स्थापित की,
पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है, कि ईसा से ५०० वर्ष या इससे पहले
यह राजधानी स्थापित हुई और मौर्य्य-जाति, इतिहास-प्रसिद्ध कोई
ऐसा कार्य तब तक नहीं कर सकी, जब तक प्रतापी चन्द्रगुप्त उसमे
न उत्पन्न हुआ । उसने मौर्य्य शब्द को, जो अब तक भारतवर्ष के
एक कोने में पड़ा हुआ अपना जीवन अपरिचित रूप से विता रहा
था, केवल भारत ही नहीं, वरन् ग्रीस आदि समस्त देशो में परिचित
करा दिया । ग्रीक इतिहास-लेखको ने अपनी भ्रमपूर्ण लेखनी से इस