पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/५९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
पहिला हिस्सा
६६
 

________________

पहिला हिस्सा देख रही है, तभी तो सूर्य को हलकी किरणों को सह कर भी एक टक उधर ही ध्यान लगाये है ।। | इस कमसिन परीजमाले का चेहरा पसीने से भर गया मगर किसी। आने वाले की सूरत न देख पड़ी । घबड़ा कर बायें अर्थात् दक्खिन तरफ मुहीं अौर उस बनावटी छोटे से पहाड को देख कर दिल बहलाना चाहा जिसमें रंग बिरंग के खुशनुमा पत्तों वाले करोटन कौलियस वरविना विगूनियो मौस इत्यादि पहाड़ी छोटे छोटे पेह बहुत ही कारीगरी से लगाये हुए थे, और बीच में मौके मौके से घुमा फिरा कर पे को तरी पहुँचाने और पहाड़ी खूबसूरती को बढ़ाने के लिये नहर काटी हुई थी, ऊपर ढाँचा खा करके निहायत खूबसूरत रेशमी नाल इस लिये डाला हुअा थी कि हर तरह की बोलियों से दिल खुश करने वाली उन रंग विरंगी नाजुक चिडियों के उड़ जाने का खौफ न रहे जो उसके अन्दर छोडी हुई हैं और इस समय शाम होते देख अपने अपने घोसलों में जो पर्ती के गुच्छ में चनाये हुए है जो वैठने के लिये उतावली हो रही हैं। | हाय, इस पहाड़ी की खूबसूरती से भी उसका परेशान और किसी की गुदाई में व्याकुल दिल न बद्दला, लाचार छत के उत्तर तरफ खड़ी हो उन तरह तरह के नशों वाली क्यारियों की देख अपने घबडाये हुए दिल को फुसलाना चाहा जिनमें नाले पीले हरे लाल चौरगे पचरने नाजुक मौसिमी फूलों के छोटे छोटे तख्ने सजाये हुए थे, जिनके देखने से वेशकीमती काश्मीरी गालाचे का गुमान हो रहा था और उसी के बीच में एक चपरदार फौवारी छूट रहा था जिसकी बारीक घारों का जाल दूर-दूर तक फैन हा या । रंग बिरंग को तितलिय उड उह कर उन रगोन । फने पर इस तरद् बैठती थी कि फून में श्रौर उनमें विलकुल फ्# नहीं । मालुम पटता या जन तक कि वे पिर से उड़कर किसी दूसरे फूलों के गुर प न जा बैटन } इन फूले। श्री पौवाके छटों ने भी उसके दिल की कली न ग्विलाई,