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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति (A८० १ .२ ५४ लाचौ नानक ने चौकठ के अन्दर पैर रखा और अपने को तीन देर के एक दालन में पाया, फिर कर पीछे की तरफ देखा तो वह दवजा भी बन्द हो गया था जिस राहू से इस दालान में आया था । उसने सोचा कि बस इसी जगह में कैद हो गया और अब नहीं निकल सकता, यह सूत्र कार्रवाई केवल इसी के लिए थी। मगर नहीं उसका विचार ठीक न था, क्योंकि तुरत ही उसके सामने की दवा खुला और उधर रोशनी मालूम होने लगी । डरता हुशा नानक आगे बढ़ा और चौकठ के अन्दर पैर रक्खा ही था कि दो नौजवान औरतों पर नजर पड़ी जो साफ और सुथरी पोशाक पहिरे हुई थी, दोनों ने नानक के दोनों हाथ पकड़ लिये श्रीर ले चली । | नानक डरा हुआ था मगर उसने अपने दिल को काबू में रक्खा, तो भी उसका कलेजा उछल रहा था और दिल में तरह तरह की बातें पैदा हो रही थीं । कभी तो वह अपनी नि•दगी से नाउम्मीद हो जाता, कमी यह सोच कर कि मैने कोई कसूर नहीं किया दाढ़स होत, ग्रो कमी सोचता कि जो कुछ होता है वह तो होवेहीगा मगर किसी तरह उन बातों का पता तो लगे जिनके जाने बिना व वैन हो रहा है। कल से जो बातें तजुन की देखने में श्राई है जब तक उनका तल भेद नहीं खुलता मेरे हवास दुरुस्त नहीं होते। ये दोनों श्रोत में कई दलानों और कोहियों में घुमाती फिरती एक बारहद में ले गई जिसमे नानक ने कुछ अजय ही तरह का समां देता । यह बारहद अच्छी तरह से सजी हुई थी और यहाँ न भी यी हो रही थी। वरि का बिल्कुल सामान यहां मौजूद था । बीच में जाऊ सिंहासन पर एक नौजवान औरत दक्षिणी दंग फी बेशकीमत पौकि पहिरे सिर पर तक जड़ाऊ जैद से लटी हुई बैठी थी। उसकी खूधसूरती के बारे में इतना ही फना बहुत है कि अपनी जिन्दगी में नानक नै देम म्रा प्रौरत कमी नहीं देती थी । उसे इस बात का विश्वास