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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति खिदमतगार आया और हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हो गया । उसकी सूरत से मालूम होता या कि वह घड़ाया हुआ है और कुछ कहना चाहता है मगर आवाज मुँह से नहीं निकलती । तेजसिंह समझ गये कि अब कुछ गुल खिली चाहता है, आखिर खिदमतगार की तरफ देख कर चोले : तेज० । क्यों क्या कहना चाहता है ? खिद् । मै ताज्जुब के साथ यह इत्तला करते डरता हूँ कि दीवान साब ( रामानन्द ) योदी पर हाजिर हैं ! महा० | रामानन्द ! खिद० । जी हाँ । महा० । ( तेजसिंह की तरफ देख कर ) यह क्या मामला है ? तेज० । (मुस्कुरा कर) महाराज, बस अब काम निकला ही चाहता है। में जो कुछ अर्ज कर चुका वही बात है । कोई ऐयार मेरी सूरत बने फर शाया है और आपको धोखा दिया चाहता है, लीजिये इस कम्वस्त को तो मैं अभी गिरफ्तार करता हूँ फिर देखा जाय । सरकार उसे हाजिर होने का हुक्म दें, फिर देखें में क्या तमाशा करता हूं। मुझे जर छिप जाने हैं, वह आकर बैठ जाय तो मैं उसको पद खोट । । महाः । तुम्हारा कहना ठीक है, बेशक कई ऐयार है, अच्छा तुम छिप ग्रो, मैं उसे बुलाता हैं। | तेज० । बहुत खुत्र, में छिप जाता हैं, मगर ऐसा है कि सरकार उसकी टाटी में छ पर खून ध्यान दें, में एकाएक पदं मे निकल कर उसकी दाढी उजाड़ लेगा क्योंकि नुकली दाढ़ी जरा ही सा झटका चाहती है। मरा० । (हँस फर) ऋच्छा अच्छा, (त्रिदमतगार की तरफ देख कर) देव उगने और कुछ मत कहियो, केवल जिर होने को हुक्म सुना दे ।। तेजसिंह दूसरे कान में जाकर छिप रहे और असली गमानन्द धीरे धीरे यहाँ पहुँचा जहाँ महापड विगज रहे थे। रामानन्द को ताज्जुत्र था