पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१७४

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दूसरा हिस्सा
 

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दूसरा हिस्सा पर मजा यह कि मैं अकेला हूँ, अब देखी चाहिये तुम लोग मेरा म्या करते हो ?" श्रानन्ट | अच्छा तब क्या हुआ । देवा० । उन दुष्टों का पता लगाने के उपाय तो मैने श्रौर भी कई किये थे मगर काम इसी से चला ! उस राह से माने जाने वाले सभी उस कागज को पढ़ते थे और चले जाते थे । ६ उरी पहाटी के कुछ ऊपर साकर एक फथर की चट्टान को प्राइ में छिपा हुआ हर दम उसकी तरफ देखा करता यई 1 एक दफे दो शादमी एक साथ यहां आये और उसे पद मूर्छा पर ताव देते शहर की तरफ चले गये। शाम को वे दोनों लौटे ग्री पिर उस फागन को पढ़ सिर हिलाते बरावर ही पहाड़ी की और नले गये । मैंने सोचा कि इनका पीछा जरूर करना चाहिये क्योंकि इम कागज के पढ़ने का असर सस से ज्यादे इन्हीं दोनों पर हुश्री । आखिर मैंने उनका पीछा किया और जो भो वा में वही ठीक निकला। वे लोग पन्द्रह बरी झादमी हैं और सभी इ कट्ट श्रौर मुण्टे हैं। उसी झण्ड मैं मैंने एक औरत को भी देखा । श्रा, ऐसी खूबसूरत औरत तो मैंने |ज तक नहीं देखी ! पहिले तो मैंने सोचा कि वह इन लोगों में से किसी की लड़की होगी क्योंकि उसकी अवस्था बहुत कम थी, मगर नहीं | उसके हाव भाव और उसकी हुकूमत भरी बातचीत से मालूम हुआ कि | वह उन सभों का मालिक है, पर सच तो यह है कि मै बी इस बात पर भी नहीं जमता } उसकी चाल दाल, उसकी बढ़ियाँ पौशाक, और उसके | बड़ाऊ कीमती गहनों पर जिसमें सिर्फ खुशरंग मानिक ही जुड़े हुए थे | ध्यान देने से दिल की कुछ विचित्र हालत हो जाती है। मानिकः १ जाऊ नेवरौ का नाम सुनते ही कुँअर आनन्दसिंह | दीक पड़े । इन्द्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह का भी चेहरा बदल गया । उस औरत का विशेष हाल जानने के लिए घबडाने लगे कि उस रात को इन चारों ने इस कृरे में या यों कहिये कि कोठेही