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'चन्द्रकान्ता सन्तति
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घूमते फिरते महाराज शिवदत्त ने चुनार से लगभग पचास कोस दूर जाकर एक हरी भरी सुहावनी पहाडी के ऊपर के एक पुराने टूटे हुए,मजबूत किले में डेरा डाला और उसका नाम शिवदत्तगढ़ रखा जिसमें उस वक्त भी कई कमर और दालान रहने लायक थे।यह छोटी पहाडी अपने चारे तरफ के ऊँचे ऊँचे पहाड़ों के बीच में इस तरह छिपी और दत्री हुई थी वि यकायक किसी का यहाँ पहुँचना श्रौर कुछ पता लगाना मुश्किल था।।इस वक्त महाराज शिवदत्त के साथ सिर्फ वास आदमी थे जिन तीन मुसलमान ऐयार भी थे जो शायद नाजिम और अहमद के रिश्ते शरों में में से झीर यह समझ कर महाराज शिवदत्त के साथ हो गए।कि इनके शामिल रहने से कभी न कभी राजा वीरेन्द्रसिंह से बदला ले का मौका मिल ही जायगा, दूसरे सिवाय शिवदत्त के श्रौर केाई इर लायक नजर भी न झात्ती था जो इन बेईमान को ऐयारी के लिए अपने मा राता।नेचे लिखे नाम से ये तीनों ऐयार पुकारे जाते थे-चाकर अला,ईटावक्श और यारग्रल!इन सत्र ऐयारों श्रौर साथियों ने मुपए,पैसे से भी जहाँ तक बन पड़ा महाराज शिवदत्त की मदद की।

राजा वारेन्द्रसिंह की तरफ से शिवदत्त का दिल साफ न हुआ मगर मेंका न मिलने के स व मुद्दत तक उसे चुपचाप बैठे रहना पड़ा।अपनी चालाकी और होशियारी से वह् पहाटी भिल्ल कोल और पवार इत्यादि जाति के श्रादमिर्यों का राजा बन बैठा और उनसे मालगुजार में गल्ला मी शहद श्रीर,बहुत मी जगली चीजें वसूल करने और उन्हीं लोगों के मारफत दर में भैरवा और विया कर रुपए,बटोरने लगा।उन्हीं लोगो से शियार रके थे।बहुत फौज भी उस वन लधापहाति के लोग भै होशियार हो गए और खुद्द शहर मेंर मला वर्ग इंच रुपए इक्ट्ठा करने लगे । शिवदत्तगढ़ भा अच्छी तरह अबाद आ गया।

दूध बो रह ऐयारी ने भी अपने कुल साथ को जो